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इफ्तार पार्टी और राजनीति

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इस्लाम में रमज़ान का महीना महत्वपूर्ण होता है। ऐसा मानना है कि इसी महीने में अल्लाह ने पैगम्बर मोहम्मद पर नायाब किताब कुरान उतारी थी। इसलिए यह खुदा की दया और उदारता का माह होता है। मान्यता यह भी है कि रोजा रखने वाले मुसलमानों पर अल्लाह की इनायत खुशहाली एवं संपन्नता के रूप में बरसती है। ईमान वालों का बड़े से बड़ा गुनाह खुदा माफ़ कर देता है। एक पक्का मुसलमान पूरे दिन रोज़ा रखने के पश्चात इफ्तार के समय उपवास तोड़ने के पूर्व इबादत करते हुए कहता है कि ‘ऐ अल्लाह! मैंने आप के लिए रोजा रखा, मैं आप में विश्वास रखता हूँ और मैं आप के सहाय से अपना उपवास तोड़ता हूँ’। मुस्लिम मत के अनुसार इफ्तार दो नमाजों के बीच अल्लाह में विश्वास रखने वालों के लिए माफी मांगने, आत्मविश्लेषण एवं प्रार्थना करने के लिए होता है, फिर यह गैर मुस्लिमों के लिए कौन सा धार्मिक कृत्य हुआ? प्रश्न उठता है कि जो नेता (विशेषरूप से गैर मुस्लिम) या दल इफ्तार पार्टी का आयोजन करते हैं क्या वे बिना किसी अभिप्राय के करते हैं? उत्तर होगा बिलकुल नहीं, क्योंकि देखने में तो लगता है कि पंथनिरपेक्ष लोकतन्त्र में इफ्तार पार्टी देना एक स्वस्थ परंपरा है लेकिन होती है विशुद्ध रूप से मुस्लिम वोटों को आकर्षित करने की एक राजनीतिक पैंतरेबाजी।

मुस्लिम विद्वानों के अनुसार ‘इफ्तार पार्टी का आयोजन व्यक्ति या संस्था की नियत पर निर्भर करता है। अगर विभिन्न समुदाय के लोगों के बीच आपसी सद्भाव को बढ़ाने की नियत से कार्यक्रम आयोजित किया जाता है तो इसमे कोई हर्ज़ नहीं’। उनका दृढ़ मत है कि ‘नेताओं द्वारा राजनीतिक उद्देश्य से इफ्तार पार्टी आयोजित की जाती है न कि हिन्दू-मुस्लिम भावनात्मक एकता के लिए’। इसलिए उनके लिए यह सिर्फ एक ‘राजनीतिक नौटंकी’ है। उनका यह भी मानना है कि ‘इस्लाम के अनुसार आप इफ्तार में जो भी खाएं वह हलाल की कमाई का हो’। वे कहते हैं कि अगर ऐसी किसी पार्टी में जाना आवश्यक ही हो तो वे अपने साथ खजूर लेकर जाएँ और अपना रोज़ा तोड़ें क्योंकि उन्हे भरोसा नहीं होता है कि राजनीतिज्ञों द्वारा आयोजित इन शानदार और खर्चीली इफ्तार पार्टियों में बेईमानी का पैसा नहीं लगा होगा।

राजनीति में इफ्तार पार्टी देने की प्रथा पं॰ जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री के बनने के साथ  प्रारभ हुई। नेहरू द्वारा प्रति वर्ष कांग्रेस कार्यालय में, जो उन दिनों 7, जंतर मंतर रोड पर था, इफ्तार पार्टी आयोजित की जाती थी। लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री बनने के पश्चात इस प्रथा पर रोक लग गई। वर्ष 1974 में मुख्यमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा ने विशुद्ध मुस्लिम वोटबैंक को ध्येय में रखकर लखनऊ में इफ्तार पार्टी देकर प्रथा को पुनर्जीवित किया। बहुगुणा की सफलता से उत्साहित होकर श्रीमती इन्दिरा गांधी ने प्रतिवर्ष दिल्ली में इफ्तार पार्टी देना शुरू किया। 1977 में जनता पार्टी की जीत के पश्चात चन्द्रशेखर ने भी इफ्तार पार्टी के आयोजन की प्रथा जारी रखा लेकिन इनमे मोरारजी देसाई नहीं सम्मलित हुए। बाद के प्रधानमंत्रियों ने भी इफ्तार पार्टी का सरकारी आयोजन किया। चूंकि विपक्षी दलों ने बीजेपी को सांप्रदायिक पार्टी का प्रमाणपत्र दे रखा है, इसलिए अटल बिहारी द्वारा आयोजित इफ्तार पार्टियाँ सही मायने मे आपसी सद्भाव के उद्देश्य से दी गई प्रतीत होती हैं न की मुस्लिम वोटबैंक के लिए।

स्वाधीनता पश्चात से अबतक देश में सबसे ज्यादा समय तक केन्द्र एवं राज्य दोनों में कांग्रेस की सरकारें थी लेकिन मुसलमानों की बदहाली पर आज भी वही पार्टी घड़ियाली आँसू बहा रही है। इसी तरह का दिखावा अन्य तथाकथित सेक्युलर दल भी कर रहे हैं। इतना ही नहीं वोटबैंक को दृष्टि में रखते हुए सेक्युलरिज़्म के नाम पर गोलबंद होकर मुस्लिम समुदाय को इफ्तार पार्टी के नाम पर गुमराह करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। मुस्लिम भाई-चारा और सेक्युलरिज़्म को मजबूत करने का दिखावा करने के लिए स्व. राजनारायण और बहुगुणा टोपी पहन कर बाकायदा नमाज तक में सम्मिलित होते थे। यह विशुद्ध नाटकबाजी के अलावा कुछ नहीं थी। मुसलमानों के प्रति विशेष लगाव दर्शाने के लिए मुलायम सिंह के लिए इफ्तार पार्टी एक महत्वपूर्ण इवेंट होती है। ऐसे अवसर पर मुलायम सिंह अपने को ‘मुल्ला मुलायम सिंह’ के रूप प्रस्तुत करने में सुकून महसूस करते हैं। मुस्लिम-यादव समीकरण को मजबूती देने के लिए मुलायम और लालू की चले तो हर महीने इफ्तार पार्टी दें लेकिन मजबूरी है कि रमज़ान का एक ही महीना होता है। बीजेपी-शिवसेना को छोडकर लगभग सभी मुख्यमंत्री तथा पार्टी मुखिया मात्र वोट बैंक को ध्येय में रखकर सेक्युलरिज़्म एवं हिन्दू-मुस्लिम भाई-चारा के नाम पर शानदार इफ्तार पार्टियों का आयोजन करते हैं। सोनिया गांधी की इफ्तार पार्टी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। टीवी पर प्रसारित समाचारों के अनुसार इस पार्टी में सभी सेक्युलर (तथाकथित) दलों के नेताओं को निमंत्रण दिया गया था। इसके पीछे का उद्देश्य था एनडीए सरकार को आगामी संसद सत्र में घेरने के लिए लामबंदी करना एवं बिहार चुनाव पर एकजुटता दिखाना। इफ्तार विशुद्ध रूप से पंथिक कृत्य (रिचुअल) है लेकिन तथाकथित सेक्युलर पार्टियाँ और उनके नेता इसका उपयोग केवल राजनैतिक उद्देश्य से करते हैं।

इफ्तार पार्टी का आयोजन देश के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति ने भी किया। शायद ही इनके द्वारा कभी इफ्तार की तरह होली और दिवाली मिलन समारोह का भी आयोजित किया गया हो। अन्य पंथों के त्योहार पर भी इस तरह का कोई आयोजन नहीं होता है। पदासीन राज्यपाल, मुख्यमंत्री भी अपने सरकारी आवास पर इफ्तार पार्टी का सरकारी आयोजन करते हैं। इनके द्वारा भी शायद ही कभी हिन्दू त्योहारों पर इफ्तार की तरह भोज का आयोजन किया गया हो। इफ्तार की शानदार पार्टियाँ जनता के पैसे से आयोजित की जाती हैं फिर होली-दिवाली के साथ भेदभाव क्यों? क्या केवल इफ्तार पार्टी का ही आयोजन पंथनिरपेक्ष है और होली-दिवाली मिलन समारोह सांप्रदायिक? ये सारे प्रश्न हमें मंथन करने के लिए विवश करते हैं। हमें समझना होगा कि कहीं राजनीतिक पंथनिरपेक्षता के नाम पर देश में समुदायों के बीच भेदभाव की खाईं गहरी तो नहीं हो रही है।

इस वर्ष आरएसएस के आनुषांगिक सगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मोर्चा ने भी इफ्तार पार्टी का आयोजन किया। इस आयोजन में मुस्लिम विद्वानों, वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, नौकरशाहों, कलाकारों आदि के अतिरिक्त 16 मुस्लिम राष्ट्रों के 38 राजनयिक सम्मिलित हुए। यह आयोजन पूरी तरह से मुस्लिम परंपरा के अनुसार हुआ। यों तो कहा जा सकता है कि इसके पीछे भी मुस्लिम राजनीति है। ऐसा हो भी सकता है लेकिन फर्क यह है कि इसके पीछे वोटबैंक नहीं प्रतीत होता क्योंकि नब्बे प्रतिशत से ज्यादा मुसलमान बीजेपी को सांप्रदायिक मानते है और उनकी दृढ़ निष्ठा केवल स्व-प्रमाणित सेक्युलर दलों में है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के कारण राष्ट्रपति द्वारा आयोजित इफ्तार पार्टी में सम्मिलित नहीं हो सके। पूरी मीडिया ने आसमान को सिर उठा लिया। विपक्षियों ने उनके सेक्युलर प्रामाणिकता पर तीखे बाण छोड़े। ध्यान रहे की मुस्लिम राष्ट्रीय मोर्चा द्वारा आयोजित इफ्तार पार्टी में भी सम्मिलित नहीं हुए थे। धार्मिक निष्ठा निहायत व्यक्तिगत होती है। केवल दिखावे के लिए मुस्लिम टोपी पहनना और अंगोछा कंधे पर डाल लेना न केवल इस्लाम का अपमान है बल्कि अपनी धार्मिक निष्ठा के साथ भी धोखा है। यह कृत्य केवल सत्य को ठुकराना और असत्य को अपनाना है। मौलाना अहमद बुखारी का मानना है कि विभिन्न राजनैतिक दलों के गैर मुस्लिम नेताओं द्वारा आपसी भाई-चारा एवं सद्भाव के नाम पर मुस्लिम वोटबैंक के लिए इफ्तार जैसे धार्मिक कृत्य का आयोजन कर सेक्युलर गोलबंदी करना मुसलमानों के साथ धोखा है। उनके अनुसार इन लोगों से अच्छे तो मोदी हैं जो कोई दिखावा नहीं करते। वस्तुतः इफ्तार जैसी पार्टियाँ केवल और केवल मुस्लिम वोटों को ध्यान में रखकर की जाती है। लोकतन्त्र में धार्मिक स्वतन्त्रता है और होना भी चाहिए लेकिन झूठे सेक्युलरिज़्म के नाम पर पंथिक और राजनैतिक गोलबंदी के लिए नहीं। यह प्रवृत्ति देश के लिए तब और घातक सिद्ध हो सकती है जबकि राज्य जनता के पैसे से इफ्तार जैसी पंथिक पार्टियाँ आयोजित करे। ऐसे आयोजन जनता और संस्थाओं को करना चाहिए। इससे सही मायने मे आपसी सद्भाव में वृद्धि होगी।

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