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मीडिया की निष्पक्षता

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लोकतन्त्र के चार स्तंभ हैं। इनमें से एक मीडिया है जिसका महत्वपूर्ण स्थान है। इसके भी कई प्रकार हैं जिनमें से प्रिंट, इलेक्ट्रानिक एवं सोशल मीडिया मुख्य हैं। इन माध्यमों से हम देश-दुनियाँ की हर प्रकार की सूचनाओं एवं छोटे-बड़े समाचारों से पलक भजते ही अद्यतन होने की स्थिति में होते हैं। इनके कारण आज सारा विश्व सिमटकर एक मुट्ठी में आ गया है। मजबूत संस्थागत स्वरूप होने के कारण प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया ज्यादा प्रभावी हैं। इनमे व्यक्ति, समाज एवं देश की धारणा बदलने की प्रबल क्षमता होती है। लोकतन्त्र के प्रहरी के रूप में अन्य तीन स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका को सचेत कराते रहने का दायित्व प्रिंट व इलेक्ट्रानिक के कंधों पर है। इनकी भूमिका तीसरे नेत्र की होती है। विश्वनीयता और निष्पक्षता ही इनकी पूंजी है। समाज एवं देश के लिए दर्पण की भूमिका में होने के कारण इनका दायित्व है कि ये ऐसी सूचनायेँ और समाचार जनमानस को उपलब्ध कराएं जो सत्यपरक एवं तथ्यों पर आधारित हों। मीडिया से हमेशा बिना किसी प्रभाव या दबाव में आए पक्षपात रहित रिपोर्टिंग की अपेक्षा रहती है, लेकिन क्या भारतीय मीडिया, विशेषरूप से इलेक्ट्रानिक मीडिया, ऐसा कर रहा है? संप्रति में तो ऐसा कदापि नहीं प्रतीत होता है। टीवी चैनलों का प्रत्यक्ष प्रभाव दर्शक पर पड़ता है क्योंकि वह जो सुनता है वही देखता भी है। वही मीडिया आज टीआरपी बढ़ाने, किसी इस या उस के प्रति झुकाव अथवा अपने दृष्टिकोण (व्यू पॉइंट) को सिद्ध करने के लिए ललित मोदी प्रकरण के नाम पर हठयोग कर रहे हैं। इस प्रदर्शन से उनकी निष्पक्षता पर संदेह के बादल मंडरा रहे है।
दो सप्ताह पूर्व ललित मोदी के ई-मेल के प्रकाश में आने के बाद विषेशरूप से अंग्रेजी चैनल इस होड़ में लग गए कि उनके द्वारा ही सबसे पहले इस प्रकरण का खुलासा किया है। सुषमा स्वराज एवं वसुंधरा राजे को हित के टकराव के आधार पर मर्यादा की याद दिलाते हुए टीवी चैनलों द्वारा त्यागपत्र मांगा जा रहा है। कहीं टीआरपी में पीछे न रह जाये, इसके मद्देनज़र कई हिन्दी चैनल भी इस प्रकरण पर कांग्रेस के साथ मिलकर प्रमुखता के साथ नित नए दस्तावेज़ प्रतुस्त करते हुये प्रधानमत्री एवं बीजेपी को घेर रहे हैं। एक प्रमुख अंग्रेजी चैनल द्वारा अंतर्राष्ट्रीय योग जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम दिवस के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम के प्रसारण की खानापूर्ति के तुरंत पश्चात उसी मुद्दे के मीडिया ट्रायल में लग जाने से उसके अभिप्राय का पता चलता है। प्राइम टाइम में अदालत लगाकर ज़ोर-ज़ोर की आवाज में एंकर महोदय मीडिया ट्रायल चलाते हुए स्वयं को जज की भूमिका में प्रस्तुत करते हैं। यही क्रम पूरे दिन पिछले दो सप्ताह से अधिक समय से लगातार चल रहा है जबकि बहुत सारे महत्वपूर्ण समाचारों को न तो चलाया जाता है और न ही उन पर चर्चा की जाती है। लक्ष्य है सुषमा-वसुंधरा के इस्तीफे की कांग्रेस की मांग को फलीभूत करवाना। निष्पक्ष मीडिया का दायित्व है कि ऐसे प्रकरणो को प्राथमिकता के साथ सत्यपरक तथ्य के साथ समाचार के रूप में दिखाये तथा उस पर सार्थक चर्चा कराये और   निर्णय जनता पर छोड़ दे। लेकिन हो रहा है ठीक इसके विपरीत क्योंकि मीडिया द्वारा अपने व्यू पॉइंट को सिद्ध करने के लिए हठधर्मिता के साथ इस प्रकरण को सनसनीखेज बनाते हुए प्रधानमंत्री और उसकी पार्टी को घेरा जा रहा है। इससे तो स्पष्ट होता है कि या तो मीडिया का एक वर्ग पेड है या किसी दल विशेष के राजनीतिक विचारधारा का समर्थक। यह वही मीडिया संकुल है जिसने अपनी प्रतिबद्धता के तहत नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के खिलाफ वर्ष 2002 से लगातार ट्रायल चलाया।
मीडिया के पक्षपातपूर्ण रवैये के दो संप्रति उदाहरण प्रस्तुत हैं। पहला है योग दिवस के कार्यक्रम पर सीपीएम महासचिव सीताराम यचुरी द्वारा योग को ‘कुत्ते की तरह करना’ बताया जाना। इस समाचार को इलेक्ट्रानिक मीडिया ने एक सामान्य टिप्पणी मानकर महत्व नहीं दिया, यहा तक कि कैप्शन में भी इसे प्रमुख स्थान नहीं मिला जबकि नरेंद्र मोदी द्वारा साक्षात्कार में उदाहरण के रूप में ‘गाड़ी के नीचे पिल्ला भी आ जाये तो भी दुख होता है’ के दिये कथन को मुसलमानों से जोड़कर कई दिनों तक लगातार चलाया। दूसरा, गुजरात पुलिस द्वारा आयोजित माक ड्रिल में आतंकवादियों को मुसलमानी टोपी पहने हुये दिखाये जाने पर मीडिया ने कई दिनों तक समाचार चलाया और इसे बीजेपी सरकार की सांप्रदायिक सोच करार दिया। वाह रे मीडिया की निष्पक्षता! इसी तरह की इलाहाबाद में उ. प्र. पुलिस द्वारा आयोजित माक ड्रिल में सांप्रदायिक दंगाईयों के हाथ में भगवा ध्वज देकर प्रदर्शन किया गया तो मीडिया का ध्यान उस ओर नहीं गया। एक दो चैनलों ने हल्के-फुल्के समाचार के रूप में दिखाया गया। न तो कोई मंथन हुआ, न तो कोई टीवी बहस। यह है निष्पक्ष मीडिया। इसके लिए यचुरी का बयान और उ. प्र. पुलिस का माक ड्रिल दोनों सेक्युलर कृत्य थे क्योंकि ये बहुसंख्यकों से जुड़ी हुई थीं। दूसरी तरफ मोदी का सात्क्षात्कार में जबाब एवं गुजरात माक ड्रिल सांप्रदायिक क्योंकि इससे मुसलमानों की भावना आहात हो रही थी। इन्हीं विचारों की पोषक एवं राजनीतिक झुकाव के मीडिया घराने  ललित मोदी प्रकरण को लेकर रात-दिन एक किए हुए है और सुषमा एवं वशुंधरा के त्यागपत्र देने तक अभियान जारी रखने में लगे हुए है। क्या इस क्षद्म-धर्मनिरपेक्ष इलेक्ट्रानिक मीडिया का पक्षपातपूर्ण प्रदर्शन किसी तरह उचित ठहराया जा सकता है? कदापि नहीं, क्योंकि यह उसके निम्नतम स्तर तक गिरने की स्थिति को दर्शाता है।

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