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अतिवादी सोच

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किसी चीज को अति तक ले जाने से अतिवाद शब्द का बोध होता है। औचित्य या मर्यादा की सीमा पार कर बहुत आगे निकल जाने का व्यवहार या सिद्धान्त अतिवादी सोच का परिचायक है। यह शब्द उग्रता और आतुरता जैसे भावों का सूचक है। पंथिक और राजनीतिक विषय में इस शब्द का प्रयोग ऐसी विचारधारा के लिए किया जाता है जो समाज की मुख्यधारा की दृष्टि में स्वीकार्य नहीं है। कटु भाषण, अराजकता का समर्थन, बात का बतंगड़ बनाना, डींग मारना आदि जैसे कृत्य अतिवाद के उत्पाद हैं। अतिवादी सोच आत्मवाद को भी जन्म देती है। राजनीति में इस तरह की सोच एवं सिद्धान्त के दल एवं नेता अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए सतत सामना (कन्फ़्रंटेशन) के मोड में रहते हैं। ऐसे दल अपनी सोच, सिद्धान्त एवं कृत्य को स्व-प्रमाणित कर उच्च आदर्शवाद के रूप में देश और समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं। इतना ही नहीं इसी सोच के परिणामस्वरूप ऐसे दलों का नेतृत्व आत्मवादी (सोलिप्सिस्टिक) विचारधारा को आगे बढ़ाता है।

देश में इसी सोच एवं सिद्धान्त को लेकर आयी आम आदमी पार्टी आज हमारे सामने है। अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के विरुद्ध चलाये गए आंदोलन को देशवासियों विशेषकर युवाओं का ऐतिहासिक समर्थन मिला। इस आंदोलन से एक बार ऐसा लगा कि देश को भ्रष्टाचार जैसे विकार से मुक्ति मिलकर रहेगी, लेकिन जो हुआ किसी ने सपने में भी सोचा नहीं होगा। अन्ना हज़ारे की स्पष्ट असहमति के बावजूद अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए उसी राजनीति में आने का निर्णय किया जिसे भ्रष्ट बताकर आंदोलन चलाया था। तर्क दिया कि राजनीति में आकर उसे शुद्ध करेंगे। जिस लोकपाल के लिए इतना बड़ा आंदोलन चला, तीन चौथाई से भी अधिक बहुमत के साथ दिल्ली में सत्ता में आने के बाद भी केजरीवाल ने अभी तक उस संस्था नाम तक लेना उचित नहीं समझा जबकि सत्ता में आए हुये चार माह पूरे होने जा रहे हैं। हाँ इतना अवश्य हुआ कि दिल्ली राज्य में पहले से मौजूद लोकयुक्त संस्था निष्क्रिय हो गई। यह संभव था कि शासन व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध यदि बाहर रहकर अभियान चलाया जाना जारी रखा गया होता तो अन्ना हज़ारे का भ्रष्टाचारमुक्त भारत का उद्देश्य पूरा हुआ दिखता, लेकिन केजरीवाल और उनके साथियों के मन कुछ और था। परिणामस्वरूप गुरु अन्ना हज़ारे को लक्ष्य मार्ग में अवरोधक मानते हुए धकेलकर अलग कर दिया गया और आम आदमी पार्टी के नाम से एक नए दल का निर्माण अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व मे भ्रष्टाचार के खात्मे के नाम पर किया गया। सत्य इससे सर्वथा भिन्न है क्योंकि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन उनके लिए राजनीति में आने का केवल माध्यम मात्र था। वस्तुतः स्वयंसेवी संस्थाओं के इन कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, वकीलों, महत्वाकांक्षी युवाओं द्वारा अन्ना हज़ारे की निर्लिप्त भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनकारी की छबि अपने निहित स्वार्थ के लिए भुनायी गयी और राजनीति में प्रवेश का मार्ग प्रशस्त किया गया।

पार्टी गठन के बाद नेताओं के वचन और कृत्य से उनकी मंशा उजागर हुई। केजरीवाल और उनके सहयोगियों द्वारा प्रेस वार्तायें आयोजित कर हिट एण्ड रन की स्टाइल में एक के बाद एक कई विपक्षी नेताओं के ऊपर बिना किसी प्रमाण के भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए। दूसरों को चोर और भ्रष्ट बताने वाला यह कार्यक्रम लगातार कई महीनों तक चलता रहा। इसके पीछे का मन्तव्य अपने को स्वयं ही निहायत ईमानदारी (अटमोस्ट आनेस्टी) का प्रमाणपत्र देना और प्रचार-प्रसार के लिए मीडिया में छाए रहना था। इसका लाभ वर्ष 2014 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी को अट्ठाईस सीट की जीत के रूप में मिला। सत्ता में आने को आतुर आम आदमी पार्टी ने स्वघोषित सिद्धांतों को दरकिनार करते हुए उसी कांग्रेस पार्टी के सहयोग से सरकार बनाई जिसके भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई के लिए अन्ना के नेतृत्व में आंदोलन अस्तित्व में आया था। अपनी इसी अतिवादी प्रवृत्ति स्वरूप लोगों को विश्वास दिलाने के लिए अपने बच्चों की कसम खाकर वादा किया कि सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से न तो कभी समर्थन लेंगे न देंगे, लेकिन तुरन्त बाद पलटी मारते हुए जनता से प्राप्त स्वीकृति के नाम पर सत्ताशीन होने के लिए उसी का हाथ पकड़ा। अस्थिर और व्यग्र मन कभी एक स्थान पर बमुश्किल ठहरता है। अतएव उड़ान भरने के लिए आतुर आत्मवादी सोच ने केजरीवाल की महत्वाकांक्षा को पंख लगा दिये जिसके कारण वे दिल्ली के मुख्यमंत्री का पद छोड़ प्रधानमंत्री बनने को उतावले हो गए। इसके लिए उन्होने लोकपाल बिल के बहाने जानबूझ कर विधानसभा भंग करवाया और 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी से मुक़ाबले के लिए कूद पड़े। सरकार बनाने के लिए जनता से पूछने का नाटक किया लेकिन गिराते समय वह भी नहीं। इस कृत्य के लिए दिल्ली की जनता से माफी मांगने का ढोंग रचा। गुजरात पहुँचकर मोदी सरकार की पोल खोलने के लिए केजरीवाल ने दो दिवसीय यात्रा का आयोजन किया और गुजरात सरकार को भ्रष्ट और मोदी को तानाशाह होने का प्रमाणपत्र जारी करते हुए लोकसभा चुनाव में वाराणसी में उनसे दो-दो हाथ करने कूद पड़े। परिणाम बताने की आवश्यकता नही। इसके विपरीत दिल्ली के वोटरों का अपने को मुफ्त की रेवड़ियों और लोकलुभावन कार्यक्रमों के भ्रमजाल में फसने से पुनः बचा नहीं सकने के परिणामस्वरूप आम आदमी पार्टी विधानसभा चुनाव 2015 में प्रचंड बहुमत में आई। बहुमत की इसी शक्ति, जिसे केजरीवाल केवल अपने दारा अर्जित किया गया मानते हैं, के कारण वे स्वयं को पार्टी के एकमेव नेता के रूप में स्थापित करने के लिए आंतरिक लोकपाल सहित कई संस्थापक सदस्यों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। कुछ ने उनकी आत्महंवादी सोच का विरोध करते हुए अपने को स्वयं ही पार्टी से अलग कर लिया।
स्वयं को आदर्शवादी एवं ईमानदार पार्टी होने का प्रमाणपत्र देना भी अतिवादी सोच है। वास्तविकता तो यह है कि इसी की आड़ में आम आदमी पार्टी द्वारा फर्जी कंपनियों से पचास-पचास हजार के चंदे के चेक़ लिए गए। सूत्रों के अनुसार कंपनियों के खाते में काला धन डालवाकर सफ़ेद धन चंदे के रूप लिया गया। आश्चर्य तो यह है कि पार्टी ने एक समिति बनाकर एक लाख से ऊपर चंदा लेने से पूर्व स्वीकृति लेना अनिवार्य किया था लेकिन इस मामले में इसकी उपेक्षा की गई। वस्तुतः दूसरों की भ्रष्ट छबि निर्मित कर अपने को ईमानदार बनाने की सोच ही इस पार्टी की अतिवादी नीति है।

अतिवादी स्वभाव और सोच के कारण ही केजरीवाल और उनके साथी अपने को अराजक कहने में तनिक भी हिचकते नहीं हैं। मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर रहते हुए धरना-प्रदर्शन के माध्यम से गणतन्त्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्व को रोकने के लिए अपने नक्सली प्रयास को लोकतान्त्रिक अधिकार मानते हैं। पार्टी द्वारा आयोजित किसान रैली में एक किसान द्वारा आत्महत्या कर लेने के बाद पड़ी हुई लाश के सामने केवल मोदी को कोसने के लिए भाषण जारी रखने जैसा कृत्य अतिवाद की पराकाष्ठा है, फिर भी इसे उचित ठहराते हैं। अब प्रधानमंत्री बनने की आतुरतावश अरविन्द केजरीवाल पुनः कन्फ़्रंटेशन के साथ अतिवादी रास्ते पर चलने के लिए उद्दत हैं। ऐसा करके वे एक ही पत्थर से दो निशाना साधना चाहते हैं: पहला-किए गए वादों से दिल्ली की जनता का ध्यान हटाना, दूसरा-अपने को नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले में खड़ा करने के लिए देश की जनता का ध्यान आकर्षित करना। इसके लिए केजरीवाल ने एक तरफ उपराज्यपाल और दूसरी तरफ केंद्र सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है। गृह मंत्रालय की अधिसूचना अस्वीकार करने का प्रस्ताव पारित करने हेतु विधानसभा के विशेष सत्र में उपराज्यपाल एवं मोदी और उनकी सरकार के लिए भ्रष्ट, निरंकुश, तानाशाह जैसे अमर्यादित शब्दो का प्रयोग किया जाना केजरीवाल सरकार के अतिवादी सोच को प्रस्तुत करता है। केजरीवाल के लिए चुनी हुई बहुमत की सरकार के सामने देश का कानून, संविधान, न्याय व्यवस्था कुछ भी मायने नहीं रखते, इसीलिए इनकी नाफरमानी अपना लोकतान्त्रिक अधिकार समझते है और कर भी रहे है। मीडिया भी ‘आप’ की अतिवादी व्यवहार से पीड़ित है। अब तो मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने हेतु एकजुटता के लिए सभी गैर भाजपा मुख्यमंत्रियों को एवं संविधान की रक्षा के लिए सभी सांसदों को पत्र लिखकर केजरीवाल ने सहयोग मांगा है। प्रत्यक्ष में भले ही कांग्रेस आप के बारे में कुछ भी बोले लेकिन परोक्ष में उसके इस मुहिम में साथ है। इसमे आश्चर्य की कोई बात नहीं है क्योंकि साम्यवाद की विचारधारा से प्रभावित होने के नाते दोनो दल एक दूसरे के करीब है। अब तो भविष्य ही बताएगा कि कन्फ़्रंटेशन की अतिवादी सोच देश की राजनीति को किस ओर ले जाएगी।

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