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संकट में किसान

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असमय वर्षा एवं ओलावृष्टि से किसानों की खेतों में खड़ी रबी की तैयार फसल नष्ट हो चुकी है। फलों की फसल की भी काफी हानि हुई है। चूंकि किसानों के लिए खेती ही आय का एकमात्र स्रोत है इसलिए फसल की हुई हानि से उन्हें उबरने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। अतएव ऐसी परिस्थितिजन्य स्थिति में वे आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठा रहे है। कुछ की अचानक आघात से मृत्यु हो रही है। कुल मिलाकर प्रभावित किसानों की स्थिति अतिचिंतनीय हो गई है। उनके सामने ऋण चुकाने एवं आगे गृहस्थी चलाने की समस्या है। इन समस्याओं का निदान विभिन्न स्तरों पर सहयोग सुनिश्चित कर किया जा सकता है। देश में ऐसी परिस्थितियों से निपटने की पूरी क्षमता है। बस आवश्यकता है तो केवल सभी के सकारात्मक सहयोग की। ऐसी राष्ट्रीय आपदा के समय राजनीतिक दलों से सबसे ज्यादा सहयोग की अपेक्षा रहती है। क्या राजनैतिक दल सकारात्मक सहयोग के अपने दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं? निश्चितरूप से नहीं। उन्हें किसानों के इस दुखभरी स्थिति में भी अवसर दोहन का एक मौका मिला है, और वे तरह-तरह के स्वांग रचकर ऐसा कर भी रहे हैं।

किसान-हितैषी बनने कि होड़ में सभी विपक्षी दल केंद्र सरकार को घेरने की प्रतियोगिता में पूरी शक्ति के साथ लगे हुए हैं। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की किसान विरोधी तथा उद्योग समर्थक छबि बनाने के लिए कुछ भी करने को तत्पर हैं। प्रधानमंत्री सीधे इनके निशाने पर हैं। मोदी विरोध के नाम पर आपस में अंतर्द्वंद होने के बावजूद भी सभी एक पक्ष में खड़े हैं। ऐसा सबकुछ केवल किसानों का वोट पाने की नियत से किया जा रहा है। ध्यान रहे कि इसके पहले मुसलमानों के एकमुष्ठ वोट पाने के लिए अल्पसंख्यकवाद के पोषक दलों ने बीजेपी को सांप्रदायिक बताया। ये सभी दल मुसलमानों के बाद अब किसानों को केवल वोटबैंक की दृष्टि से देख रहें हैं। इसीलिए प्राकृतिक आपदा सहायता और भूमि अधिग्रहण बिल के संबंध में गलत सूचनाएँ देकर किसानों को भ्रमित कर रहे हैं। क्या कोई तथा-कथित किसान-हितैषी विरोधी दल यह बता सकता है कि किसानों की आज की दीन-हीन स्थिति कैसे मोदी की दस महीने की सरकार के कारण है? क्या कांग्रेस की साठ सालों की सरकार के दौरान किसान खुशहाल थे? यदि हाँ तो मोदी सरकार निश्चितरूप से दोषी है, और यदि नहीं तो किसान-हितैषी होने का ढोंग क्यों? जब 1950 में देश की जीडीपी में कृषि का 56% का योगदान था तो अब 14% कैसे हो गया, इसका जबाब कौन देगा? क्या किसी पूर्ववर्ती केंद्र सरकार ने ऐसी आपदा की स्थिति में वर्तमान सरकार से ज्यादा राहत दी? यदि हाँ तो जनता को बताएं, यदि नहीं तो ड्रामेबाजी क्यों? जहां तक 2009 में किसानों की ऋणमाफी का प्रश्न है-यूपीए सरकार द्वारा इसकी घोषणा केवल और केवल आम चुनाव से ठीक दो महीने पहले वोटबैंक को ध्यान में रखकर की गई थी। पात्र किसानों का तो एक रुपया कर्ज माफ नहीं हुआ लेकिन ऋणमाफ़ी के सत्तर हजार रुपए अपात्रों में अवश्य बंट गए। सीएजी रिपोर्ट से इस घोटाले पुष्टि हुई। यह कैसी मदद थी जो हक़दार किसानों तक नहीं पहुंची फिर भी कांग्रेसी शूरवीर इसे अपनी उपलब्धि गिनाते फिर रहे है। हाँ, यह तो अवश्य है कि सरकारी धन के इतने बड़े लूट-पाट को किसानों के मदद के नाम पर अंजाम देकर आत्ममुग्ध हो रहे हैं। यह किसानों के साथ निरा छलावा नहीं तो क्या है।

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जब बेमौसम बारिश हो रही थी और ओले पड़ रहे थे तब विदेश में प्रवास पर थे। कहाँ थे, किस उद्देश्य से थे, कांग्रेसजनों और ईश्वर के अलावा कोई नहीं जनता। राहुल जब लौटते हैं तो ढ़ोल-नगाड़े के साथ नाच-गा कर, पटाखे फोड़कर कांग्रेसजन एक राजकुमार की तरह उनका स्वागत करते है। इससे तो यही लगता है कि उनके देश लौटने में भी कांग्रेसजनों को शंका थी। यह तो उनका अहोभाग्य है कि वे लौट आए। आते ही मोदी सरकार को किसान विरोधी बताने के अभियान में जुट गए। मोदी के ‘देश में टूर पर’ होने के बारे में तो सदन में बोला, जो कि अधिकृतरूप से विदेशी यात्रा पर होते है और जिसकी पूरी जानकारी देश कि जनता को होती है, लेकिन सदन को कभी नहीं बताया कि दो महीने वे कहाँ थे और किस लिए थे। यह स्वांग नहीं तो क्या है? यदि मीडिया की खोजी दृष्टि राहुल की इस रहस्यमयी विदेश प्रवास पर पड़े तो उसे ऐसी जानकारी मिल सकती है जिससे केवल राहुल का ढोंग ही उजागर नहीं होगा बल्कि राजनैतिक गलियारे में उथल-पुथल भी मच सकती है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी कृषक-हितैषी बनने के अभियान में जोर-शोर से जुटे हुये हैं। उन्होने संसद घेरो कार्यक्रम के अंतर्गत मोदी के विरोध में जंतर-मंतर पर किसानों का धरना-प्रदर्शन किया जिसमे सबके सामने गजेंद्र सिंह नामक एक किसान ने पेड़ से लटक कर आत्महत्या कर ली। किसान की मृत्यु की जानकारी होने बावजूद भी केजरीवाल की सभा चलती रही तो क्या यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा नहीं है? आखिर उनके क्षमा मांगने के ढोंग से गजेंद्र सिंह की मृत्यु की भरपाई तो हो नहीं सकती। परिवार को तो न्याय चाहिए क्योकि उसका स्पष्ट मानना है कि ‘आप’ के कार्यकर्ताओं ने उकसा कर पेड़ पर चढ़वाया। कहीं ऐसा तो नहीं, जैसे की संकेत भी मिल रहे हैं, एक किसान को प्रेरित कर आत्महत्या का ड्रामा करवाया जाये और मोदी सरकार को जबर्दस्त ढंग से घेरा जाये। अब जबकि किसान कि मृत्यु हो गई तो घटना के चौबीस घंटे बाद मुख्यमंत्री मौन तोड़ते हुए पहले  मीडिया को गुरेरते हैं फिर घटना के लिए क्षमा मांग लेते हैं। केजरीवाल ऐसे ड्रामेबाजी के माहिर हैं। मीडिया में बने रहने के लिए अपने को पिटवाते हैं, फिर पीटने वाले के विरुद्ध पुलिस में रिपोर्ट करने के बजाय उसके घर स्वयं जाकर माफी मांगते है। प्रधानमंत्री बनने के लिए 49 दिन की दिल्ली की सरकार भंग कर देते है फिर जनता से इस गलती के लिए मांगते है। इसे ढोंग नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे। इन्ही का अनुशरण करते हुए नितीश कुमार भी जीतन कुमार मांझी को मुख्यमंत्री बनवाने के लिए बिहार की जनता से माफी मांगते हैं। जिस समय माझी को मुख्यमंत्री पद के लिए नामित करते हैं तो उस समय अपने को समाजवाद एवं दलितों का मसीहा बताने में नहीं चूकते हैं लेकिन जब पदच्युत करते हैं तब उन्हे अपनी गलती का एहसास होता है। यह विशुद्धरूप से राजनीतिक स्वांग है। माफी मांगने का दिखावाकर ये सारे नेता केवल छलावा करते हैं ताकि मतदाता एक बार फिर इनके जाल में फंस जाये।

किसान, मजदूर, अल्पसंख्यक एवं अन्य सभी मतदाताओं को ऐसे ढोंगी बाजीगरों से सावधान रहने की आवश्यकता है क्योंकि ये पहले लोकलुभावन नारा और बाद में रेवड़ियाँ बांटकर आप को हमेशा दीन-हीन दशा में रखना चाहते ताकि आप हमेशा मुफ्त में मिलने वाली रेवड़ी के लिए इनकी ओर देखते रहें और इनके वोटर बने रहें। विकास के लिए स्थायी नींव की जरूरत होती है उसके लिए समय लगता है। वर्तमान सरकार इसी ओर काम में लगी है। हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए अन्यथा हम इन ढोंगी राजनीतिज्ञों के चंगुल में फँसकर सदैव उनके वोट बैंक ही बने रहेंगे।

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