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कश्मीरी पंडितों की घर वापसी

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यह कैसी विडम्बना है कि किसी एक पूरे जातीय समूह को अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहना पड़े। अपना घर-द्वार, संपत्ति, व्यवसाय आदि छोड़कर देश के अन्य भागों में शरणार्थी शिविरों में कष्टमय जीवन बिताना पड़े। रोजी-रोटी के लिए दर-दर भटकना पड़े। बच्चों की शिक्षा-दीक्षा एवं उनके जीवन के भविष्य को लेकर चिंताएँ सामने खड़ी हों। उसकी खेती-बाड़ी, मकान, दुकान सब कुछ छीन लिया गया हो। सबकुछ होते हुए भी उसके पास कुछ भी न हो। यदि ऐसी परिस्थिति में एक जातीय समुदाय विगत पच्चीस वर्षों से रहने को मजबूर हो तो उसकी मनोदशा को समझा जा सकता है। तब यह प्रश्न उठना अनिवार्य है कि क्या उसके लिए लोकतन्त्र और उसके अंतर्गत अधिकारों की रक्षा के कोई मायने हैं? निश्चित रूप से नहीं। वस्तुतः इन्हीं अधिकारों की रक्षा (पलायन पूर्व की स्थिति की बहाली) के लिए पीड़ित कश्मीरी पंडितों का समुदाय अपील, संपर्क, धरना-प्रदर्शन आदि अनेक माध्यमों से लगातार अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करता रहा है, लेकिन राज्य का सत्ता प्रतिष्ठान उसकी व्यथा को सुनने व समझने को आजतक तैयार नहीं दिखा। अतएव वे अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में रहने को मजबूर हैं क्योंकि वे हिन्दू हैं।

वैसे तो कश्मीर घाटी से पंडितों के पलायन का क्रम 14वीं सदी के पूर्वार्ध में तुर्किस्तान के मंगोल आक्रमणकारी जुल्जू के विनाशलीला के साथ शुरू हुआ। कश्मीर के सातवें कट्टर मुस्लिम शासक सिकन्दर बुतशिकन (1389-1413) ने तो गैर-मुस्लिमों के पूजा स्थलों एवं प्रतिकों को तहस-नहस करते हुए उनकी पूरी आबादी को इस्लाम स्वीकार करने या घाटी छोड़ देने के लिए विवश किया। बहुत सारे कश्मीरी ब्राह्मणों ने इस्लाम नहीं स्वीकार किया और पलायन कर देश के अन्य भागों में चले गए। इसके पश्चात, मुग़ल के बाद अफ़गान बादशाहों के समय बहुत सारे कश्मीरी पंडितों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और थोड़ी सी आबादी शेष बची। डोगरा शासन काल (1846-1947) के दौरान कश्मीरी पंडितों की कुल आबादी 14 से 15 प्रतिशत के बीच थी जिनमे से 20 प्रतिशत ने 1948 के मुस्लिम दंगे और 1950 के भूमि सुधार कानून आने के बाद घाटी छोड़ दी। वस्तुतः सन 1981 तक कश्मीर में कुल जनसंख्या के केवल 5 प्रतिशत पंडित शेष बचे।

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद नब्बे का दशक वह काल-खंड था जिसमे मुस्लिम उग्रवादियों के क्रूरतापूर्ण अत्याचार के कारण कश्मीरी पंडित कश्मीर घाटी छोड़ने को बाध्य हुए। 19 जनवरी 1990 वह काला दिन था जिस दिन जेहादियों ने मस्जिदों से घोषणा की कि कश्मीरी पंडित काफिर हैं, पुरुष तत्काल घाटी छोड़ दें या इस्लाम स्वीकार कर लें अथवा मार दिये जाएंगे। जो घाटी छोड़ने को तैयार हुए उनसे कहा गया कि वे लड़कियों और महिलाओं को नहीं ले जा सकते। पूर्व योजना के तहत कश्मीरी मुसलमानों से कहा गया कि वे पंडितों के घरों की पहचान कर लें ताकि उन्हे मुसलमान बना लिया जाये या मार दिया जाये। फिर शुरू हुआ वीभत्स कत्ले-आम जिसमे हजारों लोग मारे गए। लड़कियों एवं महिलाओं की इज्जत लूटी गई। सम्पत्तियों पर कब्जा किया गया। धर्मस्थल तोड़े गए अर्थात धर्मान्ध जेहादियों द्वारा वह सबकुछ किया गया जिसकी कम से कम एक पंथनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक देश में उम्मीद नहीं की जाती। परिणामतः पूरी घाटी से कश्मीरी पंडित पलायन कर गए तथा जम्मू सहित अन्य स्थानों पर शरणार्थी शिविरों में कष्टपूर्ण जीवन बिता रहे हैं। ध्यान रहे कि जिस समय पलायन की ये सब घटनाएँ हो रही थीं उस समय मुफ़्ती मोहम्मद और पंथनिरपेक्षता की स्वयंभू चैम्पियन कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। सबकुछ होने दिया क्योंकि दोनों को पंडितों की नहीं बल्कि अपने वोट बैंक की चिंता थी।

विधान सभा चुनाव के बाद जम्मू-कश्मीर में जब न्यूनतम साझा कार्यक्रम के अंतर्गत भाजपा एवं पीडीपी की सरकार बनी तो उम्मीद जगी कि कश्मीरी पंडितों के दिन बहुरेंगे। विगत दिनों मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद जब दिल्ली प्रवास के दौरान गृहमंत्री मंत्री से मिले तो कश्मीरी पंडितों के लिए ‘अलग बस्ती’ (सेपरेट सेटीलमेंट) के बारे में बात हुई और सहमति बनी। जब यासीन मलिक, गिलानी,  मसरत आलम जैसे देशद्रोहियों को इसके बारे में पता चला तो उन्होने हँगामा करना शुरू कर दिया और कहा कि जम्मू-कश्मीर को इज़राइल नहीं बनने देंगे। विधानसभा में भी हँगामा हुआ। फिर क्या था, मुफ़्ती ने, गृहमंत्री के साथ हुई सहमति के उलट, अलगाववादियों के सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि न तो सेपरेट सेटीलमेंट नहीं बनने दिया जाएगा और न ही जम्मू-कश्मीर को इज़राइल बनने दिया जाएगा। साथ ही देशद्रोहियों की तरह तर्क दिया कि पंडितों को उनके मूल स्थान पर बसाया जाएगा ताकि कश्मीरियत तथा सह-अस्तित्व का भाव पुनः कायम हो सके। क्या कोई मुफ़्ती की बात पर यकीन करेगा जिसने मसरत जैसे पाकिस्तान-परस्त एवं मदांध जेहादी को पाकिस्तानी झण्डा फहराने और भारत के खिलाफ नारेबाजी करने लिए छोड़ दिया हो, जो मसरत को देशद्रोह की धारा में निरुद्ध करने से आना-कानी करता हो, जो मलिक, गिलानी, शब्बीर शाह व अन्य को गिरफ्तार न करता हो और राज्य में भारत विरोधी कार्यक्रम चलाने और तोड़-फोड़ करने के लिए खुला छोड़ दिया हो? निश्चित रूप से नहीं। ये वही तत्व हैं जिन्होंने 1990 कि घटना को अंजाम दिया।

भाजपा ने सकारात्मक सोच के साथ पीडीपी के साथ सरकार बनाई। सोच थी राज्य की समस्याओं का स्थायी हल निकालेंगे। विकास को आगे बढ़ाते हुए खुशहाली लाएँगे। ऐसा करके कश्मीरियों का दिल जीतेंगे। उन्हे राष्ट्र की मुख्य धारा में लाएँगे। कश्मीरी पंडितों की घर वापसी होगी। लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है क्योंकि मुफ़्ती न्यूनतम साझा कार्यक्रम से इतर अपने वोटरों को संबोधित करने में लगे हुए हैं। उन्हे कश्मीरी पंडितों की चिंता क्यों होने लगी। बीजेपी, शिवसेना आदि के अतिरिक्त एक भी दल पंडितों के बारे में नहीं सोचते हैं क्योंकि उन्हें मुस्लिम वोटों कि चिंता सताये रहती है। उन्हे धारा 370 की चिंता रहती जिसके कारण कश्मीर का विशेष चरित्र बना हुआ है, देश के शेष भाग से कटा हुआ है। कितना विचित्र है कि देश के लेखकों, बुद्धजीवियों, सेक्युलरिस्टों और मानवाधिकारियों को पाकिस्तान-परस्त जेहादियों की चिंता तो सताये जाती है लेकिन कश्मीरी पंडितों के बारे में एक भी शब्द नहीं बोलते हैं। उनके अनुसार यही है सच्ची पंथनिरपेक्षता। उदाहरणार्थ, स्वामी अग्निवेश जैसे समाजसेवी को मसरत आलम राष्ट्रभक्त लगता है लेकिन कश्मीरी पंडित देशद्रोही। तभी तो यासीन मलिक जैसे अलगाववादी के साथ श्रीनगर में अनशन पर बैठकर मसरत का समर्थन करते हैं, कश्मीरी पंडितों के लिए प्रस्तावित कालोनी का विरोध। हो सकता है बीजेपी को जम्मू-कश्मीर के अपने लक्ष्य में जल्द सफलता न मिले। यह भी हो सकता है कि योजना के अनुसार कश्मीरी पंडितों की जल्द घर वापसी न हो सके लेकिन किसी भी तरह से असंभव नहीं है, दुरूह जरूर है। पंडितों की तरफ से भी जल्दीबाजी उचित नहीं क्योंकि अब वे पुरानी स्थिति में कभी नहीं आ सकते। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि गैर-मुस्लिम होने कारण ही उन्हें घाटी से पलायन करना पड़ा था।

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