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व्यक्ति विरोध की राजनीति

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लोकतंत्र में सभी पक्षों की भूमिका अहम होती है। व्यक्ति हो या समाज; सत्तापक्ष हो या विपक्ष, सबका अपना-अपना महत्व होता है। सभी के सहयोगात्मक योगदान से ही लोकतंत्र को मजबूती मिलती है। लोकतान्त्रिक राजनीति में सत्तापक्ष और विपक्ष एक दूसरे के पूरक होते हैं। दोनों के अधिकार एवं दायित्व भी निर्धारित होते हैं। सीमाएं भी तय होती है। फिर भी यदि सीमाएं तोड़ी जाती हैं तो इससे किसी पक्ष को लाभ हो न हो लेकिन लोकतंत्र को क्षति अवश्य पहुँचती है। निःसंदेह लोकतंत्र में विरोध और असहमति के स्वर उसके हिस्से ही नहीं उसकी ताकत भी होते हैं, लेकिन दुराग्रह एवं पूर्वाग्रह् भरे भाव से नहीं। दुर्भाग्य से यही हो रहा है। संसद के अंदर एवं बाहर की स्थिति से तो कम से कम यही प्रकट होता है। वर्तमान में देश की राजनीति नैतिक शून्यता की ओर बढ़ रही है। राजनितिक नीतिशास्त्र (पॉलिटिकल एथिक्स) का कोई मायने नहीं रह गया है। लोकतांत्रिक अधिकारों की तो बात की जाती है लेकिन राष्ट्र के प्रति दायित्वों की तनिक भी नहीं। विरोध के लिए विरोध करना वास्तव में विरोध के महत्व को समाप्त करने जैसा है। राजनीति में सिद्धांतों एवं नीतियों का असहमति की स्थिति में विरोध करना सर्वथा उचित है लेकिन व्यक्ति का विरोध कदापि नहीं जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मामले में होता दिख रहा है।

आजकल देश में मोदी विरोध की होड़ मची हुई है। हर दल इस होड़ में एक दूसरे को पीछे छोड़ देना चाहता है। तथ्य यह है कि मोदी के सशक्त प्रादुर्भाव को कांग्रेस सहित कई दल अपने अस्तित्व के लिए खतरा मान रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण है जनता परिवार के नाम पर क्षेत्रीय दलों के विलय का प्रयास। हाल ही में विलय के लिये आयोजित बैठक के पश्चात हुई प्रेस वार्ता में शरद यादव ने स्पष्टरूप से कहा कि मोदी को रोकने के लिए हम सब एकजुट हुए हैं। ऐसे ही उदगार नई पार्टी (अनाम) के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के भी थे। दूसरी तरफ कांग्रेस भूमि अधिग्रहण बिल के नाम पर मोदी सरकार के खिलाफ सभी दलों को लामबंद करने में लगी हुई है। बिल के विरोध में कांग्रेस के नेतृत्व में सभी विरोधी दलों का राष्ट्रपति भवन तक मार्च निकालना इसकी पुष्टि करता है। यह कैसी विडम्बना है कि वे सारे दल जो कांग्रेस के विरोध के उत्पाद थे, आज उसी के साथ मोदी विरोध में एकजुट हैं। अब उनके लिये कांग्रेस का भ्रष्टाचार व कुशासन कोई मायने नहीं रखता। भाजपा और मोदी के विरोध के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। जिस नीतीश कुमार ने बिहार में बीजेपी के साथ मिलकर लालू-राबड़ी शासन के जंगलराज को ख़त्म करने का बीड़ा उठाया, आज उसी लालू (सज़ायाफ्ता अपराधी) की पार्टी के साथ अपनी पार्टी के विलय के लिए उद्दत हैं। उद्देश्य है मोदी को रोकना। आम आदमी पार्टी जैसी नई पार्टी भी, जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना आंदोलन की उपज है, आज मोदी के खिलाफ कांग्रेस के साथ मजबूती से खड़ी है। ये सारे मोदी विरोध यदि सिद्धांतों को लेकर हैं तो उचित है, लेकिन यदि केवल सत्ता में आने के लिए सिद्धांतहीन एकजुटता है तो अनुचित ही नही अनैतिक भी हैं।

भाजपा एवं मोदी विरोध के वैसे अनेक कारण हो सकते हैं लेकिन उनमें से साम्प्रदायिकता प्रमुख है। कुछ एक को छोड़कर शेष सभी विपक्षी दल बीजेपी और मोदी को सांप्रदायिक सिद्ध करने की होड़ में लगे रहते हैं, मानो कि उन्हें किसी दल या व्यक्ति को सांप्रदायिक घोषित करने का अधिकार मिला हो। विपक्षी दलों का यह एक सुनियोजित अभियान है। इसके पीछे छिपा हुआ कारण है अल्पसंख्यक, मुख्य रूप से, मुस्लिम वोट बैंक। सभी स्वयंभू सेक्युलर दल मुस्लिम वोट के लिए भाजपा और मोदी को घेरने का कोई अवसर नही छोड़ते। यह उनकी क्षद्म-पंथनिरपेक्षता ही है कि स्वयं मुसलमानों के तुष्टिकरण के लिए कब्रिस्तान की चहरदीवारी निर्माण जैसे अनेक घोर सांप्रदायिक कार्यक्रमों का संचालन करते हैं लेकिन भाजपा को सांप्रदायिक कहते हैं। देश के संविधान के अनुसार पंथ के आधार पर नागरिकों के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जा सकता है। बावजूद इसके एक ही विद्यालय में एक गरीब हिन्दू विद्यार्थी को छात्रवृत्ति नहीं मिलती है लेकिन वहीँ एक मुस्लिम विद्यार्थी को मिलती है, भले ही वह संपन्न हो। यह सब विपक्षी दलों की सरकारें करती हैं क्योकि उनके पंथनिरपेक्ष होने के लिए यह आवश्यक है। बीजेपी सबके लिए सामान कार्य करती है, इसलिए साम्प्रदायिक हैं। आजतक कभी नहीं देखा गया कि बीजेपी की केंद्र या किसी राज्य की सरकार ने हिंदुओं के लिए नीतियों और कार्यक्रमों में कोई अलग स्थान दिया हो फिर भी ये क्षद्म-पंथनिरपेक्ष दल अलसंख्यकों को खुश करने के लिए निहित स्वार्थवश अनर्गल अलाप करते रहते हैं। मोदी को किसी आयोग अथवा कोर्ट ने 2002 के गुजरात दंगों के लिए दोषी नहीं माना है फिर भी विरोधियों का उनके विरुद्ध साम्प्रदायिक विलाप जारी है। विगत लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिए विकास लेकिन विपक्षी दलों के लिए सेक्युलर बनाम कम्युनल मुद्दा प्रमुख था। परिणाम सबके सामने है। फिर भी मुस्लिम समर्थन के नाम पर सभी एकजुट होकर मोदी एवं बीजेपी के खिलाफ खड़े है। आज के दिन विपक्षियों के लिये मोदी विरोध ही सही मायने में सेक्युलरिस्म है। इसीलिए सेक्युलरिस्म (क्षद्म) के नाम पर मोदी विरोध के लिए सब एक हैं। हालांकि इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि बीजेपी के कुछ अपने लोग और तथाकथित हिन्दू चिंतक अनावश्यक वक्तव्य देकर भाजपा एवं मोदी सरकार की मुस्लिम विरोधी छवि बना रहे हैं।

वर्तमान में भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध के नाम सभी एक हैं। यह सब एक सोची समझी चाल के तहत हो रहां है। सबका एक ही प्रयास है कि किसी तरह बीजेपी की किसान-मजदूर विरोधी छवि बनाई जाए। मुस्लिम विरोधी की तरह किसान-मजदूर विरोधी का ठप्पा लगाकर एकमुश्त वोट पाने के लिए लैंड बिल का ससंद के अंदर व बाहर विरोध किया जा रहा है। किसानो को बिल के बारे में गलत जानकारी देकर सरकार के विरुद्ध खड़ा करने का कुत्सित प्रयास चल रहा है। कमजोर हो चुकी कांग्रेस इसी मुद्दे के सहारे अपने को मजबूत करने में लगी हुई है। पार्टी इस मुद्दे से ऑक्सीजन मिलने की उम्मीद लगाए बैठी है। चूँकि सभी को मोदी का विरोध करना है इसलिए गहरे मतभेद के बावजूद भी कांग्रेस की अगुवाई स्वीकार करने को मजबूर है। सभी दलों को मोदी सरकार को पछाड़ने में ही अपनी जीत दिखाई दे रही है। इस विरोध से दोनों हाथ में लड्डू मिलता दिख रहा है: एक मुस्लिम वोट; दूसरा किसान-मजदूर वोट। अंदर की बात तो यह है कि लैंड बिल के वर्तमान स्वरुप से अधिकतर विरोधी दल सहमत हैं लेकिन समर्थन से कहीं मोदी के साथ खड़े होते न दिख जाएँ, अतएव विरोध उनकी मजबूरी है। सभी दलों को पता है कि विकास को जमीन पर उतारने के लिए लैंड बिल का वर्तमान स्वरुप में पारित होना आवश्यक है, और यदि ऐसा होता है, तो देश विकास के मार्ग पर चल निकलेगा। यदि ‘सबका साथ, सबका विकास’ के मोदी सिद्धांत पर विकास को गति मिलती है तो सभी सामान रूप से लाभान्वित होगें। मोदी के विकास के एजेंडे के सफल होने की स्थिति में विपक्ष के पास गरीबों, पिछड़ों, दलितों, मजदूरों, अकलियतों आदि के मुद्दों का अभाव हो जायेगा क्योंकि इनकी यथास्थिति ही उनकी राजनीति के अनुकूल है। इसलिए सभी विरोधी दल बीजेपी और मोदी सरकार को एकजुट होकर परास्त करने की मुहिम चला रहे है। अन्त में, मोदी विरोध के 2002 से अबतक अनेकों दृष्टान्त हैं जिनमे से संसद के साठ सदस्यों द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को पत्र लिखकर वीसा न देनें का अनुरोध करना सबसे घृणित है, लेकिन क्या कहेंगे वोट बैंक के लिए विरोध करना मजबूरी है। वाह रे देश की राजनीति!

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