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महागठबंधन के नाम पर धोखाधड़ीपूर्ण राजनीति

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छठवें दशक में 1967 के चुनावों के साथ देश में अल्पावधि की सरकारों एवं दल-बदल की राजनीति का प्रारम्भ हुआ। राज्यों में कांग्रेस का एकाधिकार टूटने लगा और एक दल के स्थान पर कई दलों, समूहों एवं निर्दलीय विधायकों की मिली-जुली (गठबंधन) सरकारें बनने लगीं। उत्तर प्रदेश, बिहार और पंजाब में स्वतंत्र, जनसंघ, बीकेडी एवं सीपीआई के समर्थन से संविद सरकारों का गठन हुआ। कुछ राज्यों में कांग्रेस, जहां अल्पमत में थी, ने भी निर्दलियों एवं विपक्ष के टूटे हुए समूहों के साथ मिलकर सरकारें बनाई। देश की राजनीति में सरकारों के बनाने एवं गिराने के गंदे खेल ने दल-बदल, सौदेबाजी और पार्टियों में विभाजन जैसी बुराइयों को जन्म दिया। माननीय बिकने और खरीदे जाने लगे। माननीयों ने अनेकों बार पाला बदला और पारितोषिक के रूप में उन्हें मंत्री का पद मिला। दोनों वामपंथी दलों और जनसंघ को छोड़कर अन्य सभी में दलीय अनुशासन टूटा। कांग्रेस सहित सभी दल जिन्हें मौका मिला आयाराम-गयाराम को बढ़ावा दिया। हरियाणा इसका ज्वलंत उदाहरण है। परिणामस्वरूप वर्ष 1967 एवं 1970 के मध्य बिहार में सात, उत्तर प्रदेश में चार, हरियाणा, मध्य प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, पंजाब में तीन और केरल में दो बार सरकारें बदलीं। कुल मिलाकर आठ बार राष्ट्रपति शासन लगा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मिली-जुली या गठबंधन की सरकारों में कोई ईमानदारी नहीं थी, केवल सत्ता में बने रहना ही उद्देश्य था।

राजनीति में जब कोई गठबंधन या पार्टी विलय का किसी उद्देश्य, जो कि दर्शन, नीति और नैतिकता पर आधारित हो, को सामने रखकर किया जाता है तो निश्चित रूप से स्थिर व सफल होता है। जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति आंदोलन की परिणति के रूप में कई दलों को मिलाकर जनता पार्टी का गठन ऐसे ही उद्देश्य को सामने रखकर किया गया था। उद्देश्य था इन्दिरा गांधी के आपातकाल अर्थात तानाशाहीपूर्ण कुशासन का खात्मा, लोकतन्त्र की रक्षा, नीति एवं नैतिकतापूर्ण सुशासन की स्थापना। परिणामस्वरूप मार्च में 1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी और ठीक ढंग से चल रही थी कि ढाई वर्ष बीतते-बीतते स्वार्थ एवं पद-लोलुपता की शिकार हो गई क्योंकि वे सारे मूल्य नेपथ्य में चले गए जो पार्टी निर्माण के मेरुदंड थे। चौधरी चरण सिंह ने अपनी महत्वाकांक्षा के वशीभूत होकर मंत्रिपरिषद के वरिष्ठ मंत्रियों, जो कि विलय पूर्व जनसंघ के सदस्य थे, की दोहरी सदस्यता का मामला उठाया। मोरारजी देसाई को पद छोड़ने के लिए विवश करने के हेतु चौधरी चरण सिंह सरकार से बाहर आ गए। परिणामस्वरूप 28 जुलाई, 1979 को सरकार का अन्त हो गया। तत्पश्चात कांग्रेस ने भारतीय लोकदल को समर्थन देकर चौधरी चरण सिंह की सरकार बनवाई और पाँच महीने बाद समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दी। यहाँ विचारणीय है कि चौधरी साहब ने उसी इन्दिरा गांधी से समर्थन लिया जिसने उन्हें 1975 में जेल मे डलवा दिया था। यह सब खेल उस समय भी आएसएस एवं सेक्युलरिज़्म के नाम पर दोहरी सदस्यता का प्रश्न उठाकर चौधरी चरण सिंह द्वारा किया गया। उन्हें अचानक ज्ञान हुआ कि दोहरी सदस्यता के कारण देश का सेक्युलरिज़्म खतरे में है। जब जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ तब भी इन सेक्युलरिस्टों को पता था कि आरएसएस पार्टी की मातृ संस्था है। सोची समझी चाल के तहत सेक्युलरिज़्म के नाम पर राजनीति का गंदा खेल खेला गया। अन्ततः जनता पार्टी बिखर गई और उसके घटक दल अलग-अलग राहों पर चल पड़े। पूर्व जनसंघ भारतीय जनता पार्टी नाम से नई पार्टी के रूप में अस्तित्व में आयी।

पुनः जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन की वर्षगांठ 11 अक्तूबर, 1988 को जनता पार्टी के घटक दलों लोकदल, कांग्रेस (एस) एवं वी. पी. सिंह के नेतृत्व वाले जनमोर्चा को मिलाकर एक नई पार्टी ‘जनता दल’ का गठन हुआ। निहित स्वार्थों के कारण कालांतर में इस पार्टी के विघटन स्वरूप राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, बीजू जनता दल, जनता दल (यू), जनता दल (एस), समता पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, भारतीय राष्ट्रीय लोकदल, समाजवादी जनता पार्टी (राष्ट्रीय), लोक जन शक्ति पार्टी आदि नामों से क्षेत्रीय दल अस्तित्व में आए। ये सभी दल दलितों, मज़लूमों एवं अकलियतों के नाम पर अबतक जाति एवं पंथ (धर्म) आधारित राजनीति करते आए हैं। लालू एवं मुलायम का ‘मुस्लिम-यादव’ समीकरण इसका एक जीता जागता नमूना है।

2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को शानदार सफलता मिली। तत्पश्चात मोदी के करिश्माई नेतृत्व में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के विधानसभा चुनावों में जीत हुई और बीजेपी की सरकार बनी। जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी। इससे भयभीत होकर राजद, सपा, जद (यू), जद (एस) एवं भारालोद आदि ने जनता दल परिवार को महागठबंधन/नए दल के रूप में पुनर्जीवित करने का निर्णय लिया। यह गठबंधन अपनी क्षद्म-धर्मनिरपेक्षवादी सोच से मोदी सरकार के विकासोन्मुख सोच को परास्त करने की सोच रखता है। इस मुहिम में कांग्रेस सहित अन्य कई दल एकजुट हैं जैसा कि राज्यसभा के पिछले सत्र में देखने को मिला। सभी क्षद्म-सेक्युलरिज़्म के नाम पर एक हैं क्योंकि सबको अल्पसंख्यक वोटबैंक की चिंता है। यद्यपि कि इन सभी दलों ने लोकसभा चुनाव में सेक्युलरिज़्म को मुद्दा बनाकर ही मोदी को घेरने का भरसक प्रयास किया था, फिर भी हारे। चुनाव में मात खाने के बाद भी इन दलों के पास इसके अलावा कोई अन्य मुद्दा नहीं है।

जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा मत प्रतिशत के साथ पच्चीस सीट लेकर दूसरे स्थान पर आयी। जब सरकार बनाने की बात चली तो गुलाम नबी आज़ाद ने सांप्रदायिक पार्टी अर्थात बीजेपी को सत्ता से दूर से रखने के लिए पीडीपी, एनसी एवं कांग्रेस को एक सेक्युलर महागठबंधन प्रस्ताव रखा। इनके लिए पीडीपी और एनसी सेक्युलर हैं बावजूद इसके कि इन्हे प्रदेश में हिन्दू मुख्यमंत्री स्वीकार्य नहीं है। कांग्रेस तो सेक्युलरिज़्म की ठेकेदार है, इसलिए यह पार्टी जिसे सर्टिफिकेट देती है वही सेक्युलर हो जाता है। चुनाव के दौरान ये तीनों दल एक दूसरे के विरुद्ध विष वमन करते रहे और अब तथाकथित सेक्युलरिज़्म के नाम पर एक जुट होने को तैयार हैं। कांग्रेस और एनसी पीडीपी को बिना शर्त लिखित समर्थन देने को उतावले हैं। जम्मू क्षेत्र, जहां से बीजेपी के पच्चीस विधायक जीतकर आए हैं, को धर्मनिरपेक्ष महागठबंधन के नाम पर सरकार में प्रतिनिधित्व से वंचित करने की कुटिल चाल है। अतएव जनता दल परिवार की तरह मुफ़्ती, अब्दुल्ला और नेहरू-गांधी परिवार भी एक महापरिवार बनाकर जम्मू-कश्मीर में सत्ता पर कब्जा करने के फिराक में है।

वस्तुतः कांग्रेस एवं इन क्षेत्रीय दलों के पास महागठबंधन बनाकर मोदी को रोकने का ही एक रास्ता दिखाई पड़ रहा है लेकिन उसमे ईमानदारी लेशमात्र नही है। महागठबंधन बनाने का प्रयास किन्ही नीतियों, कार्यक्रमों, आदर्शों को सामने रखकर होनी चाहिए जो कि दूर-दूर तक नही दिखती। बल्कि ये सभी दल स्वार्थवश एक कामन फैक्टर ‘सेक्युलरिज़्म’ के नाम पर गोलबंद होने का प्रयास कर रहे हैं। वैसे अल्पसंख्यकवाद पोषित सेक्युलर विचारधारा ‘सबका साथ, सबका विकास’ की विचारधारा को मात दे सकेगी, संभव नहीं है। लालू, मुलायम, चौटाला, देवगोड़ा आदि के परिवार आधारित दलों का समाजवाद केवल उनके परिवार तक ही सीमित है। जनता के लिए इस समाजवाद का कोई मायने नहीं है। अब यदि नितीश कुमार सेक्युलरिज़्म के नाम पर बीजेपी से आठ साल का संबंध तोड़कर सजायाफ़्ता अपराधी लालू के साथ चले जाये जिसके जंगलराज को खत्म करने के नाम बिहार की सत्ता में आए तो इसे भारतीय राजनीति की पराजय न कही जाये तो क्या कहा जाय। यह स्पष्टरूप से जनता के साथ धोकाधड़ीपूर्ण राजनीतिक व्यवहार है। अतः ‘जनता दल परिवार’ रूपी यह प्रस्तावित गठबंधन/पार्टी विशुद्धरूप से एक भ्रष्ट, अवसरवादी एवं सिद्धांतहीन गिरोहबाजी है जिसके उत्प्रेरक नितीश-शरद हैं। पूर्व के अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस राजनीतिक धोखाधड़ी का पहला शिकार यह नई पार्टी स्वयं होगी और इतिहास अपने को दुहराएगा।

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