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न घर का न घाट का

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बीजेपी द्वारा शिवसेना के साथ मिलजुल महाराष्ट्र में सरकार न बनाना किसी भी प्रकार से उचित नही कहा जा सकता है। आज जिस तरह से विधान सभा में विश्वासमत प्राप्त करने को लेकर प्रश्नचिन्ह लगाए जा रहे हैं, इस परिस्थिति से बखूबी निपटा जा सकता था। शिवसेना भाजपा की पच्चीस वर्ष पुरानी सहयोगी पार्टी है। उसका सहयोग न लेकर एनसीपी, जिसे पूरे चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा द्वारा भ्रष्टतम पार्टी कह कहकर लोगों से वोट मांगा गया, का सहयोग लेकर बहुमत सिद्ध किया जाना जनमानस को झझकोर रहा है। पिछली सरकार में कांग्रेस एवं एनसीपी के मंत्रियों द्वारा की गई तथाकथित भारी घोटाले से त्रस्त महाराष्ट्र की जनता ने उन्हे सत्ता से बाहर कर दिया। भाजपा एवं शिवसेना को मिलाकर एक अच्छा बहुमत दिया। आज के दिन भाजपा किस तरह एनसीपी के नेताओं द्वारा किए गए भ्रष्टाचार की जांच करवा सकेगी जबकि उसी के समर्थन, जो किसी रूप में हो, के बिना सरकार नही चला सकती। यदि देवेन्द्र फणवीस सरकार द्वारा एनसीपी, जिसे आप द्वारा Naturally Corrupt Party कहा गया, के भ्रष्टाचार को लेकर कोई कार्यवाही नही की गयी और चुप्पी साध ली गई तो महाराष्ट्र के साथ ही साथ पूरे देश में बहुत ही खराब संदेश जाएगा जिससे उबर पाना पार्टी के लिए कठिन होगा। देश की जनता बीजेपी को आम आदमी पार्टी से अलग क्यों मनाने को तैयार होगी जिसने कांग्रेस के भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान चलाया और दिल्ली में सरकार बनाने के लिया उसी का सहारा लिया। सत्ता में आने के बाद उसने भी तत्कालीन मुख्यमंत्री, जिसके भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा और जिन्हे भारी शिकस्त भी दी, के विरुद्ध कोई कार्यवाही नही की। बीजेपी तब से लेकर अब तक यह कहती आ रही है कि आम आदमी पार्टी ने जिस कांग्रेस पार्टी के भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान चलाया उसी के सहयोग से 49 दिनों की सरकार चलायी। यह भुलाया नही जा सकता कि कांग्रेस् ने भी केजरीवाल को बिना शर्त एवं बिना मांगे बाहर से समर्थन दिया था जैसा कि एनसीपी द्वारा अब भाजपा को दिया जा रहा है। अब यही मुद्दा आगामी चुनावों, विशेष रूप से दिल्ली मे उठने वाला है जिसका भाजपा को प्रतिकार करने का कोई मौका नहीं मिलने वाला है और न ही उसके पास कोई नैतिक अधिकार होगा।
साथ ही यहाँ इस तथ्य को भी नकारा नही जा सकता कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी किसी भी समय अपना समर्थन वापस लेने से जरा भी नही हिचकिचाएगी जब उसे लगेगा कि भाजपा सरकार उसके निहित हितों/भ्रष्ट आचरणों के खिलाफ कार्यवाही करने जा रही है। ऐसी किसी पार्टी पर कैसे विश्वास किया जा सकता है जिसकी सोच एवं नीति सत्तापक्ष के धुर-विरोधी हों। साधारण जनमानस यह पचा नही पा रहा है कि जब भाजपा के पास शिवसेना जैसा विश्वसनीय साथी है तो एनसीपी के सहयोग से लूली-लंगड़ी सरकार क्यों चलाना चाहती है? अब तो ऐसा लगता है कि बीजेपी ने जानबूझकर यह जोखिम लेने का निर्णय किया है। यह अदूरदर्शी कदम साबित हो सकता है।
भाजपा एवं शिवसेना का साथ एक स्वाभाविक साथ है। इन दोनों दलों की सोच एवं नीति एक जैसी है। दोनों दल क्षद्म-धर्मनिर्पक्षता के खिलाफ एक जुट रहे हैं और आगे भी एक रहेंगे। दोनो प्रखर राष्ट्रीय सोच के दल हैं। इन दलों को एनसीपी एवं कांग्रेस सहित देश के लगभग सभी दलों ने सांप्रदायिक घोषित कर रखा है। जब पच्चीस वर्षों तक आपस में इतने आत्ममीयता सम्बन्ध रहे हों तब ऐसा दुरावपूर्ण सम्बन्ध होना स्वाभाविक नहीं है। यद्यपि कि शिवसेना द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा एवं उनके नेताओं की तुलना अफजल खान एवं उसकी सेना से की गई। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के पिता जी को संदर्भित करते हुये अमर्यादित टिप्पणिया की गई। ऐसी टिप्पणियों करके शिवसेना ने भाजपा के साथ अपने सम्बन्धों को खराब किया, हालांकि उद्धव ठाकरे ने बाद में अपने को इससे अलग कर लिया। सीट बटवारे को लेकर मतैक्य नहीं हो सका जबकि मामला केवल तीन से चार सीटों का ही था। सरकार में मंत्रीपद की संख्या एवं विभागों को लेकर जो सहमति नहीं बन सकी वह नामुमकिन नहीं थी, मगर मन-भेद की गांठ ने ऐसा नहीं होने दिया। दोनों दलों को थोड़ा-थोड़ा पीछे हटकर समझौता कर लेना चाहिए था लेकिन प्रतीत होता है दोनों के अहं भाव ने ऐसा नही होने दिया। यद्यपि कि महाराष्ट्र के संयुक्त (पूर्व के) वोटरों ने दोनों दलों को अलग-अलग वोट दिया लेकिन उन्हे कदापि उम्मीद नही थी कि चुनाव परिणाम आ जाने के बाद भी वे अलग-अलग रहेगे। भाजपा एवं शिवसेना के सत्तापक्ष एवं विपक्ष में बैठने को महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश कि जनता स्वीकार नहीं कर पा रही है।
चूंकि दोनों की मूल विचारधारा एक ही है इसलिए ऐसा अलगाव दोनों के लिए हानिकारक हैं। इसमे सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा का होगा क्योंकि बड़े भाई के रूप में उसे ही पहल करके शिवसेना को सरकार में सम्मिलित करवाना चाहिए था। ऐसा न करके उसने आत्मघाती निर्णय लिया है। भाजपा के सभी विरोधी दलों की सहानिभूति शिवसेना की ओर परिलक्षित हो रही है। शिवसेना की तुलना में एनसीपी जैसी महाभ्रष्ट पार्टी (जैसा स्वयं भाजपा ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा) का सहयोग लेना भ्रष्टाचार से मुह मोड़ लेना है; ऐसे में पार्टी की सुचिता के विचार का क्या होगा? जनमानस की धारणा (Perception) बड़ी मायने रखती है; यह वही धारणा है जिसने कांग्रेस को 44 तक सीमित कर दिया। अभी अवसर है पार्टी शिवसेना को साथ में लेकर सरकार चलाये और एनसीपी पर निर्भरता को समाप्त कर सरकार को स्थायित्व देते हुए महाराष्ट्र में विकास की गंगा बहाये। अन्यथा की स्थिति में “न घर का न घाट का” की स्थिति होना तय है-बस समय की बात है।

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