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वोट-बैंक के मद्देनज़र गोमांस खाने की केंद्र सरकार की सलाह

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भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ गोवंश का धार्मिक के साथ ही साथ आर्थिक समृद्धि में अनन्त काल से महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज भी घर में गाय का होना शुभ एवं खुशहाली का प्रतीक माना जाता है। इन्ही विश्वासों और मान्यताओं के कारण हिंदुओं में गाय माता की तरह पूज्यनीय है। हर काल में ऋषियों, मनीषियों ने गो-संवर्धन की बात कही। सिक्ख पंथ के दशवें गुरू गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ के स्थापना के समय गोरक्षा को अपना परम कर्तव्य बताया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ‘गोसंवर्धन सभा’ का गठन कर आर्य समाज के माध्यम से प्रभावशाली अभियान चलाया। 1891 में महात्मा गांधी ने इस गौरक्षा आंदोलन की सराहना की।
इन सब के विपरीत आज की केंद्र सरकार बहुसंख्यक जनमानस की आस्थाओं एवं मान्यताओं को लहू-लुहान करने पर तुली हुई है। सरकार द्वारा गोमांस खाने की सलाह देना इसका ताजा उदाहरण है। अभी हाल ही में केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय ने ‘न्यूट्रीशन’ नाम की एक पुस्तिका छपवाकर लोगों को वितरित करवाया। पुस्तिका में हरे पत्ती की सब्जियों के अतिरिक्त गोमांस को पौष्टिक भोजन बताते हुए खाने की सलाह दी। मंत्रालय द्वारा संचालित कार्यक्रम के अंतर्गत कि जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान द्वारा वितरित की जा रही पुस्तिका के माध्यम से लोगों को बताया जा रहा है कि शरीर के पोषण में नियमित आक्सीजन संचरण एवं रक्त निर्माण की आवश्यकता होती है जिसका सब्जियों के अलावा गोमांस एक अच्छा स्रोत है। यह जानते हुए भी कि ऐसा परामर्श देना संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्त धारा-48 का स्पष्ट उल्लंघन है, सरकार को कोई असहजता नहीं महसूस होती क्योंकि उसे बहुसंख्यक समाज की भावनाओं की कोई चिंता नहीं है। उसका यह कृत्य देश की मूल संस्कृति के ऊपर संघातिक हमला हैं जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक समरसता छिन्न-भिन्न होने से इंकार नहीं किया जा सकता।
ठीक इसी तरह पिछले वर्ष जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली के परिसर में ‘द न्यू मैटेरियलिस्ट’ नामक संगठन ने गोमांस पार्टी आयोजित करने की घोषणा की थी। इस सगठन को वामपंथी कामरेडों के साथ ही साथ विश्वविद्यालय के अध्यापकों का आशीर्वाद प्राप्त था। पहले यह पार्टी ईवीआर पेरियार के जन्मदिन पर होनी थी जिसे बाद में छात्रसंघ चुनाव के चलते बदलकर शहीद भगत सिंह के जन्मदिन 28 सितम्बर को कर दिया गया। ऐसा सबकुछ मात्र छात्रसंघ चुनाव को ध्यान में रखकर माहौल को गरम करने के लिए नियोजित किया गया था। धृष्टता तो यह थी कि ऐसे राष्ट्रद्रोही कार्यक्रम का शहीद भगत सिंह के जन्मशती के अवसर पर आयोजन की घोषणा की गई। ऐसे मामलों में छद्म-धर्मनिरपेक्ष दलों की कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी और सरकार मौन धारण कर समाज भंजक तत्वों को अपना मूक समर्थन देती रही। वर्तमान प्रकरण में तो वह स्वयं आयोजक की भूमिका में है। इस तरह के कार्य वोटबैंक पुख्ता करने में जितना सहायक सिद्ध होते हैं उससे कहीं ज्यादा समाज एवं देश को तोड़ने में।
यदि हम अतीत में जाएँ तो पाएंगे कि भारत में आदिकाल से गाय की माता के रूप में पूजा की जाती रही है। इस देश में गोहत्या का प्रारम्भ 1000 ई॰ के आस-पास हुआ। मुस्लिम आक्रांता कुर्वानी के नाम पर देश के मूल निवासियों (हिंदुओं) को अपमानित करने के लिए गायों का बध करते थे। गोमांस अंग्रेजों का भी मुख्य भोज्य-पदार्थ था इसलिए उन्होने भी बृहद स्तर पर गोहत्या जारी रखा जिसका स्वतन्त्रता संग्राम के साथ ही साथ विभिन्न स्तरों विरोध प्रारम्भ हुआ। सन 1857 में मंगल पाण्डेय द्वारा मुह से गाय की चर्बी लेपित कारतूस खोलने से मना करने एवं कमांडर को गोली मारने के साथ ही प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की शुरुआत एक जीता-जागता उदाहरण है। महात्मा गांधी ने 1927 में स्वराज से बड़ा लक्ष्य गोरक्षा को बताया था। स्वराज्य आंदोलन के सभी नेताओं ने देश की जनता को बारंबार आश्वस्त किया था कि स्वतन्त्रता का लक्ष्य प्राप्त होने के पश्चात स्वदेशी सरकार कि पहली कार्यवाही गोहत्या पर रोक लगाने की होगी। लेकिन इसके ठीक विपरीत कांग्रेस की एक विशेष समिति ने कहा कि मारे हुए के मुक़ाबले कत्ल किए गए गोवंश से ज्यादा विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है जो कि गौरक्षा से उल्टा मत था। ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण सिफ़ारिशों के अनुपालन में सन 1950 में एक आदेश जारी कर कहा गया कि मृत गाय का चमड़ा बध की गई गाय के चमड़े की तुलना मे कम मूल्य देता है, इसलिए राज्य सरकारें गाय के बध पर पूर्ण रोक न लगाएँ।
इसी क्रम में गोमांस खाने की सलाह देकर केंद्र की कांग्रेसनीत सरकार उस एन॰ जी॰ चेरन्यस्विसकी के साथ खड़ी हो गई है जिसने अपने उपन्यास ‘विंटेज’, 1961 में कहा था, “गोमांस मनुष्य को महान शक्ति देता है”। केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय, जिसके मंत्री मुस्लिम ही होते हैं, को गोमांस खाने का परामर्श देने में कोई हिचक नहीं क्योंकि अल्लाह ने कुर-आन में फरमाया है कि “उसने चौपाया आप के लिए ही बनाया है। आप उन्हे ज़िबह कर खुद खाएं और गरीबों में भी तकसीम करें”। उन्हे बहुसंख्यकों की भावना से क्या लेना देना; महान भारतीय सांस्कृतिक धरोहर से क्या तात्पर्य।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपना आदर्श बताने वाली कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने उनके द्वारा देशवासियों को दिये गए आश्वासन “स्वतन्त्रता का लक्ष्य प्राप्त होने के पश्चात स्वदेशी सरकार कि पहली कार्यवाही गोहत्या पर रोक लगाने की होगी”, के उलट वोटबैंक के लिए गोमांस खाने की सलाह देकर उनकी पुनः हत्या कर दी है जोकि नाथूराम गोडसे से भी ज्यादा घृणित है। कांग्रेस के साथ वे सारे राजनैतिक दल, जो सरकार में हैं या बाहर से मदद कर रहें हैं, वोटबैंक के लिए गोमांस खाने के लिए चलाये जा रहे सरकारी कार्यक्रम में सहभागी होकर पंथनिरपेक्षता का डंका पीट रहे हैं। क्या हम गोहत्या के लिए उतने ही जिम्मेदार नहीं हैं क्योंकि सरकार हमारे ही टैक्स के पैसे से कार्यक्रम चलवाकर लोगों को गोमांस खाने की सलाह दे रही हैं? कहीं इसके पीछे भारत की प्राचीनतम संस्कृति को समूल नष्ट करने की नियोजित सोच तो नहीं? सोचिए, एक नहीं अनेकों बार, यह राष्ट्रद्रोह नहीं तो क्या है?

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