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जे॰एन॰यू॰ परिसर में प्रस्तावित गोमांस पार्टी-एक अक्षम्य धृष्टता

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जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली के परिसर में ‘द न्यू मटेरियलिस्ट’ नामक संगठन ने गोमांस पार्टी आयोजित करने की घोषणा की है। इस सगठन को वामपंथी कामरेडों का आशीर्वाद प्राप्त है। पहले यह पार्टी (उत्सव) ईवीआर पेरियार के जन्मदिन पर होनी थी जिसे अब छात्रसंघ चुनाव के चलते बदलकर शहीद भगत सिंह के जन्मदिन 28 सितम्बर को कर दी गई है। ऐसा सबकुछ चुनाव को ध्यान में रखकर माहौल को गरम करने के लिए नियोजित किया गया है। आयोजकों द्वारा कैम्पस में पर्चे बांटकर कहा जा रहा है कि यदि जन्माष्टमी को रसिया और होली को भांग पीने का आयोजन हो सकता है तो गोमांस पार्टी आयोजित करने स्वतन्त्रता क्यों नहीं मिलनी चाहिए। इस आयोजन का उद्देश्य भाजपा, आरआरएस सहित अन्य हिंदूवादी संगठनों की राजनीति पर कठोर प्रहार करना है क्योंकि इन्होंने गाय को राजनीति का केंद्र बनाया हुआ है। जेएनयू सेंटर फॉर अफ्रीकन स्टडीज़ के पीएच-डी छात्र एवं फॉरमेशन कमेटी फॉर बीफ पोर्क फेस्टिवल के सदस्य अनूप का मानना है कि जेएनयू संसद के कानून द्वारा बना संस्थान है इसलिए गोमांस पार्टी के आयोजन पर दिल्ली एनसीआर एक्ट-1984 लागू नहीं होता। इस पार्टी को लेकर आयोजक अड़े हुए हैं। बड़ी विचित्र बात तो यह है कि गोमांस पार्टी को लेकर अबतक आयोजित जितनी बैठकें हुईं उनमें जेएनयू एवं डीयू के कई प्राध्यापक भी भाग ले चुके हैं। इससे प्रतीत होता है कि जेएनयू और डीयू जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालयों में छात्रों एवं शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग भारतीय संस्कृति, मान्यता एवं आस्था को नेस्तोनाबूद करने में लगा हुआ है। यहाँ भारतीय संस्कृति से अभिप्राय उस संस्कृति से नहीं है जिसकी व्याख्या आज के बुद्धिजीवी एवं नेता ‘अनेकता में एकता’ के रूप में करते हैं बल्कि उस मूल संस्कृति से है जो वैदिक काल से चली आ रही है।
यह तो हो सकता है कि वामपंथी जन्माष्टमी को रसिया और होली को भांग पीने के आयोजन जैसे कार्यक्रमों से सहमत न हों लेकिन इसका मतलब यह तो कत्तई नहीं कि गोमांस पार्टी का आयोजन कर बीजेपी एवं आरआरएस सहित अन्य हिंदूवादी संगठनों के विरोध के नाम पर गाय के प्रति हिंदुओं की आस्था को लहू-लुहान कर दें। अन्य पंथानुगामियों की तरह हिन्दू भी सभी दलों से जुड़े हुए हैं लेकिन गाय की माता के रूप में मान्यता का भाव सभी में समान रूप से एक है। यह मान्यता आदि काल से भारतीय संस्कृति से जुड़ी हुई है। धृष्टता तो यह है कि ऐसे राष्ट्रद्रोही कार्यक्रम का शहीद भगत सिंह के जन्मशती के अवसर पर आयोजन की घोषणा की गई है। ऐसे मामलों में छद्म-निरपेक्ष दलों की कोई प्रतिक्रिया नहीं आती और सरकार मौन धारण कर समाज भंजक तत्वों को अपना मूक समर्थन देती रहती है जैसा कि इस प्रकरण में होता दिख रहा है। इस तरह के कार्य वोटबैंक पुख्ता करने में जितना सहायक सिद्ध होते हैं उससे ज्यादा समाज एवं देश को तोड़ने में। वामपंथी विचारधारा से जुड़े छात्र जिन्हें अपने गुरुओं का आशीर्वाद प्राप्त है, एक सोची समझी रणनीति के तहत बीफ पार्टी का आयोजन कर छात्रसंघ चुनाव में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) को पटखनी देने का अभिप्राय रखते हैं।
भारत में गौहत्या का प्रारम्भ 1000 ई॰ के आस-पास हुआ। यहाँ जो इस्लामी आक्रांता तुर्की, ईरान (फारस), अरब और अफगानिस्तान से आए वे पहले विशेष अवसरों पर ऊंट, भेंड एवं बकरी की बलि देते थे। भारत आने के पश्चात यहाँ के मूल निवासियों को अपमानित करने के ध्येय से गायों कि कुर्बानी करने लगे। कहा जाता है कि हिंदुओं में पनप रहे विरोध की भावना विरोध को देखते हुए अकबर और औरंगजेब जैसे मुगल बादशाहों ने विभिन्न स्थानों पर मुस्लिम त्योहारों के दौरान दी जाने वाली गाय की कुर्बानी को निषेध किया। 1900 सदी के प्रारम्भ में जब अंग्रेजों का का शासन कायम हुआ तो उनके सामने गोमांस की समस्या पैदा हुई क्योंकि यूरोप में यही उनकी मुख्य भोज्य-पदार्थ था। इसी के मद्देनज़र पश्चिमी देशों की तर्ज पर भारत के विभिन्न भागों विशेषकर ब्रिटिश सेनाओं की तीन कमान बंगाल, मद्रास एवं बंबई प्रेसीडेंसी में अनेकों स्लाटर हाउस खोले गए। ज्यों-ज्यों गोरी सेना कि संख्या बढ़ती गई गौहत्या की संख्या भी बढ़ गई।
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में गोवंश का धार्मिक के साथ ही साथ आर्थिक समृद्धि में भी महत्वपूर्ण योगदान था और आज भी है। आज भी घर में गाय का होना शुभ एवं खुशहाली का प्रतीक माना जाता है। इन्ही विश्वास और मान्यता के कारण हिंदुओं में गाय माता की तरह पूज्यनीय है। हर काल में ऋषियों, मनीषियों ने गोरक्षा की बात कही। सिक्खों के दसवें गुरू गुरु गोविंद सिंह ने स्थापना के समय घोषणा की थी कि खालसा पंथ आर्य धर्म, गाय, ब्राह्मण की रक्षा, संतों और गरीबों की रक्षा के लिए है। उन्होने सन 1812 में “चंद दी वार” कविता में आदि शक्ति से प्रार्थना की कि “मुझे दुनियाँ से तुर्क और गाय की हत्या की बुराई खत्म करने, गाय के हत्यारों के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध की शुरुआत की शक्ति दे”। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अंग्रेजों के गोहत्या प्रोत्साहन के विरोध में आह्वाहन किया और ‘गोसंवर्धन सभा’ का गठन कर आर्य समाज के माध्यम से प्रभावशाली अभियान चलाया। 1891 में महात्मा गांधी ने इस गौरक्षा आंदोलन की सराहना की।
देश के स्वतन्त्रता संग्राम के क्रांतिवीरों के लिए भी गाय के प्रति आस्था असीम प्रेरणा कि स्रोत बनी। मंगल पाण्डेय ने मुँह से गोमांस लेपित कारतूस के लिए मजबूर करने वाले एक संकेत के बाद अपने ब्रिटिश कमांडर को गोली मार कर स्वतन्त्रता की प्रथम लड़ाई की शुरुआत की। 1870 में नामधारी सिक्खों ने एक गाय संरक्षण क्रांति करते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया जिसे ‘कूका क्रान्ति’ के रूप में जाना जाता है। महात्मा गांधी सहित स्वराज्य आंदोलन के सभी नेताओं ने देश की जनता को बारंबार आश्वस्त किया था कि स्वतन्त्रता का लक्ष्य प्राप्त होने के पश्चात स्वदेशी सरकार कि पहली कार्यवाही गोहत्या पर की रोक होगी। महात्मा गांधी ने 1927 में स्वराज से बड़ा लक्ष्य गोरक्षा को बताया था। इसके ठीक विपरीत कांग्रेस की एक विशेष समिति ने कहा कि मारे हुए के मुक़ाबले कत्ल किए गए गोवंश से ज्यादा विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है जो कि गौरक्षा से उल्टा मत था। ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण सिफ़ारिशों के अनुपालन में सन 1950 में एक आदेश जारी कर कहा गया कि मृत गाय का चमड़ा बध की गई गाय के चमड़े की तुलना मे कम मूल्य देता है, इसलिए राज्य सरकारें गाय के बध पर पूर्ण रोक न लगाएँ। यद्यपि कि 24 नवम्बर, 1948 को संविधान सभा में गोहत्या विषय पर बहस के दौरान पंडित ठाकुर दास भार्गव, सेठ गोविंद दास, प्रो॰ सिब्बन लाल सक्सेना, श्री राम सहाय, डॉ॰ रघुवीरा आदि ने पूर्ण बध निषेध के पक्ष में पुरजोर आवाज उठाई। देश के बँटवारे के क्लेश को देखते हुए सभा के दो मुस्लिम सदस्यों जे॰ एच॰ लारी एवं सैयद मो॰ सईदुल्ला ने सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए गौहत्या को स्पष्ट, निश्चित और गैर-द्विअर्थी शब्दों में निषिद्ध करने की वकालत की। लेकिन मैकाले-स्कूल के शिक्षित जिन्हे भारतीय संस्कृति से कुछ लेना देना नहीं हैं और जो पश्चिमी देशों के रहन-सहन एवं खान-पान के हिमायती हैं, को गोबध से कोई ऐतराज नहीं है। ये वही बुद्धिजीवी हैं जो अनेकों बार विरोध प्रदर्शनों एवं आंदोलनों के पश्चात भी गोहत्या पर रोक के विरोधी हैं।
आयोजकों का यह कथन कि वे हिंदुवादी दल एवं संगठनों की राजनीति के विरोधस्वरूप ऐसा कर रहें जबकि वास्तव में वे समस्त हिन्दू समाज की मान्यता एवं आस्था को किसी साजिश के तहत गहरी चोट पहुँच रहे। यह प्रकरण स्पष्ट करता है कि जवाहर लाल नेहरू के साम्यवादी समाजवाद के सिद्धांत का केंद्र जेएनयू अब ताल ठोंककर बीफ पार्टी के माध्यम से मूल भारतीय संस्कृति, जिसके पर्याय हिन्दू हैं, को अपमानित करने पर आमादा हैं। यह सब कुछ वर्तमान शासक पार्टी के एक विशेष वर्ग के वोटबैंक नाराज न होने देने के उदेश्य से देश के स्वतंत्र होने से लेकर अब तक गोहत्या पर प्रतिबंध के विरोध का प्रतिफल है। दूसरी ओर जो गोहत्या का विरोध करते है उन्हे सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है। अगर आज ही संसद में ‘गोहत्या पूर्ण निषेध’ विषय पर बहस कराकर वोटिंग करा लिया जाये तो एक-दो दलों को छोड़कर सभी दल अल्पसंख्यकों के एकमुष्ठ वोट बैक को ध्यान में रखकर प्रस्ताव के विरोध में मत देंगे। असीम त्रिवेदी के खिलाफ कार्टून बनाने के कारण देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा सकता है लेकिन पूर्व सूचना देकर विश्वविद्यालय अर्थात केंद्र सरकार को चैलेंज करने वाले अनूप के खिलाफ के कुछ भी नहीं क्योंकि हस्तक्षेप से वोटबैंक प्रभावित हो सकता है। अतएव ऐसी बीफ पार्टियों का आयोजन हमेशा होते रहेंगे और निश्चित रूप से सामाजिक कटुता को बढ़ावा देंगे जो देश कि स्थिरता के लिए गंभीर खतरा पैदा करेंगे। आयोजक एवं उनके सहयोगी पूर्णरूपेण एन॰ जी॰ चेरन्यस्विसकी के उपन्यास ‘विंटेज’ 1961 में दिये गए कथन ‘गोमांस मनुष्य को महान शक्ति देता है’ के समर्थक हैं जो येन-केन प्रकारेण हिंदुओं की आस्था को चोट पहुंचाने की अक्षम्य धृष्टता करने को उद्दत हैं। अब हमें सोचना है कि क्या करना है….

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