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घुसपैठ रोकने की सहज राह या कुछ और?

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दैनिक जागरण के दिनांक 31.08.2012 के सम्पादकीय पृष्ट पर श्री संदीप पांडे का “घुसपैठ रोकने की सहज राह” नामक शीर्षक का प्रकाशित लेख पढ़ा। लेख के विषयवस्तु से जो बात समझ में आती है वह यही है कि ‘राष्ट्र’ के सिद्धान्त की मान्यता अमानवीय है। लेखक का यह कहना कि लोग खुशी से अपना घर-द्वार छोड़कर दूसरे देश में नहीं जाते हैं, मजबूर होकर रोजी-रोटी की तलाश में जाते हैं। इसलिए हमें बंगलादेशी नागरिकों को, जो असम में बस गये हैं, के साथ ही साथ अन्य देशों के नागरिकों के लिए दरवाजा हमेशा खोले रखना चाहिए, कहीं से भी विवेकपूर्ण नहीं लगता। लेखक को यह भी पता नहीं है कि फिजी, गुयाना, केन्या, मारिशस आदि देशों में जो लोग गए उन्हे अंग्रेज़ गन्ने की खेती के लिए जबरन ले गए जिन्हें ‘गिरमिटिया मजदूर’ का नाम दिया गया, पाकिस्तान से जो हिन्दू मजबूरी में यहाँ आए या आ रहें है उनके पास निर्धारित अवधि का वीजा-पासपोर्ट होता है। असम में 1971 के बाद जो बंगलादेशी आए हैं या आ रहें हैं, वे घुसपैठिए हैं और अवैधरूप से सीमा पर करते हैं। इनकी तुलना भारत से अरब देशों को नौकरी की तलाश में वीजा-पासपोर्ट पर जाने वाले नागरिकों से करना लेखक की सोच का दिवालियापन है।
असम में बंगलादेशी घुसपैथियों के कारण जनसांख्यकीय संतुलन बिगड़ गया है। इतना ही नहीं वहाँ के मूल निवासियों की जमीन-जायदाद पर अवैध कब्जा कर परिस्थितियों को बदल दिया गया है। लेखक ने यह नहीं बताया कि ये बेघर मूल निवासी जो दो जून की रोटी नहीं जुटा पा रहे है, किस देश में जाये? ध्यान रहे कि वोटबैंक नीति के कारण ही असम के पाँच जिले मुस्लिम बाहुल्य हो चुके हैं जिसका परिणाम आज सबके सामने है। लेखक का यह कहना कि “अब जो लोग बांग्लादेश से आते हैं उनमे से कई लोग कूड़ा बीनने का काम करते हैं, वे आतंकवादी नहीं हैं” यह प्रमाण पत्र संदीप पांडे जैसे अविवेकी लोग ही दे सकते हैं। मेरे विचार से ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज एवं राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं और हमे ऐसे लोगों की पुरजोर भर्त्सना करनी चाहिए। पांडे जी साम्यवादी हैं लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि उनके अनुसार राष्ट्ररूपी इकाई की धारणा को समाप्त कर देश को धर्मशाला बना दिया जाये।

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