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आखिर सांप्रदायिक कौन…..

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भारतीय राजनीति में “साम्प्रदायिकता” एक ऐसा हथियार बन गया है जिसका प्रयोग सोची समझी रणनीति के तहत वोटबैंक के लिए बेहिचक किया जा रहा है I सभी पार्टियां अपने को अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानो, की सबसे बड़ी हितैषी सिद्ध करने और दूसरे को पछाड़ने में लगी हुई हैं। उनको इस बात की कोई चिंता नहीं है कि उनके इस आचरण से अंततः देश का कितना नुकसान होगा। संविधान की दृष्टि में जब सभी नागरिक समान हैं और सभी को समान अधिकार मिले हुए हैं, क्योंकि पंथ के आधार पर किसी तरह का भेदभाव अनुमन्य नहीं है, तब वर्ग विशेष के प्रति इतनी अनुकंपा क्यों? सत्ता में बने रहने के लिए राजनेता किसी स्तर जा सकते हैं, इसका एक सटीक उदाहरण उत्तर प्रदेश का हालिया विधानसभा चुनाव हम सभी ने देखा है।
इसके पहले की हम इस विषय पर चर्चा को आगे बढ़ाएँ यह जान लेना आवश्यक है कि ‘सेक्युलरिज़्म’ है क्या और क्या भारतीय संदर्भ में इसका सही अर्थ ‘धर्मनिरपेक्षता’ है। मूलतः पश्चिमी देशों में चर्च का राज्य में बढ़ते हुए दखल को रोकने के लिए मजहब को राजसत्ता से अलग करने के यंत्र के रूप में ‘सेक्युलर’ शब्द का प्रयोग किया गया और आज एक आधुनिक राजनैतिक एवं संबिधानी सिद्धांत के रूप प्रतिपादित है जिसके दो मूल बिन्दु हैं : 1) राज्य के संचालन एवं नीति-निर्धारण में मजहब (रेलिजन) का हस्तक्षेप नही होनी चाहिये, 2) सभी पंथ के लोग कानून, संविधान एवं सरकारी नीति के आगे समान है। भारत गणराज्य भी इसी सिद्धान्त को अपनाये हुए है।
भारतीय संदर्भ में नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास का कारक है, सार्वभौम चेतना का संकल्प है। साथ ही धर्म हमारी व्यवस्था का संविधान है और कर्म हमारी उस व्यवस्था को बताने वाले संविधान का क्रियान्वयन है। आज लोग धर्म को न मानकर अपनी बात मनवाने को ही धर्म समझते हैं। जितने धर्म के नाम पर विचार चल रहे हैं, वे धर्म नहीं मत या पंथ (Sects) हैं। वस्तुतः ‘रिलीजन’ शब्द का हिन्दी पर्याय ‘धर्म’ बिलकुल नहीं है क्योंकि इसका अर्थ अत्यंत व्यापक है। कर्तव्य, आचारसंघिता, नियम आचार-विचार, शिष्टाचार आदि का समावेश एक शब्द ‘धर्म’ मे ही हो जाता है। संप्रदाय शब्द से रिलीजन का अर्थ नही निकलता फिर भी वह इसके निकट प्रतीत होता है। हमारे राजनीतिज्ञों ने अपने लाभ के लिए धर्म और पंथ को मिलाकर गड्ड-मड्ड कर दिया है। वास्तविकता तो यह है कि कोई व्यक्ति, समाज या राष्ट्र धर्म से निरपेक्ष (विमुख) हो ही नहीं सकता है और फिर भी यदि ऐसा होता है तो इन सभी इकाइयों का अधर्म के मार्ग पर चल पड़ना निश्चित है। कुछ ऐसा ही मत इंग्लैण्ड के जॉर्ज जेकब हॉलीयाक ने सन् 1846 इस तरह व्यक्त किया था “आस्तिकता-नास्तिकता और धर्म ग्रंथों में उलझे बगैर मनुष्य मात्र के शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक, बौद्धिक स्वभाव को उच्चतम संभावित बिन्दु तक विकसित करने के लिए प्रतिपादित ज्ञान और सेवा ही धर्मनिरपेक्षता है”। अतएव धर्मानुसार आचरण से पंथनिरपेक्ष राष्ट्र कि अवधारणा को मजबूती प्रदान कि जा सकती है जिसमे पंथ के आधार पर भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं होती है। सभी के साथ समान न्याय एवं सभी को समान अधिकार प्राप्त होते हैं।
उक्त यथार्थ के सर्वथा विपरीत हमारे राजनीतिज्ञ समाज एवं राष्ट्र के हित को दरकिनार करते हुए अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए कैसे आगे बढ़ रहे हैं, इस पर चर्चा जरूरी है। श्री अखिलेश यादव की नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश की नवगठित सरकार ने अभी हाल में ही यह निर्णय लिया कि मुस्लिम समुदाय की हाई स्कूल पास सभी लड़कियों को 30 हजार रूपये की आर्थिक मदद दी देगी। सरकार का यह निर्णय गरीब हिन्दू लड़कियों के साथ स्पष्ट नाइंसाफी है और साथ ही साथ पंथ के आधार पर भेदभाव संबिधान के साथ खिलवाड़। समाजबादी पार्टी ने मुसलमानों को आबादी के आधार पर अट्ठारह प्रतिशत एससी-एसटी की तरह अलग से आरक्षण देने, सच्चर एवं रंगनाथ मिश्र समितियों की समस्त सिफ़ारिशों को लागू करने और मदरसों को आर्थिक सहायता देने सहित अनेक घोषणाएँ चुनाव के समय की थी, उन्हे अब लागू करने का निर्णय लिया है। पार्टी अल्पसंख्यकों में केवल मुसलमानों के लिए चिंतित दिखती है और यही इसके सेक्युलरिज़्म का मापदंड है। ऐसी पार्टी और ऐसी सरकार केवल सत्ता में बने रहने के लिए यदि केवल एक वर्ग विशेष के बारे में सोचे तो इसे कैसे सेकुलर कहा जा सकता है? सही सेकुलर तो वह पार्टी व सरकार कही जा सकती है जो पंथ के आधार पर किसी नागरिक के साथ कोई भेदभाव नहीं करे लेकिन यह कैसी विडम्बना है कि वोटबैंक के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण को ही सच्ची पंथनिरपेक्षता (सेक्युलरिज़्म) मान लिया गया है।
अब उस राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की चर्चा करेंगे जिसके नेता अपने को सेकुलरिज़्म का रजिस्टर्ड लंबरदार मानते हैं। इस पार्टी की सरकार, जिसकी प्रधानमंत्री स्व॰ श्रीमती इन्दिरा गांधी थीं, ने 1976 में संविधान में 42वाँ संशोधन कर “सेक्यूलर” शब्द को संविधान के प्रस्तावना मे सम्मिलित कर दिया जिसकी आवश्यकता संविधान सभा के सदस्यों को देश के बटवारे के बाद के परिवेश में विल्कुल नहीं महसूस हुई थी। आपातकाल के दौरान यह कार्य एक सोची-समझी रणनीति के तहत मुस्लिम वोटबैंक को ध्यान मे रखकर किया गया और तभी से खुलकर सेक्युलर एवं नान-सेक्युलर का खेल शुरू हो गया। इसके बाद पुनः भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री राजीव ने शाहबानो केस में मुस्लिम तुष्टीकरण का रास्ता अपनाते हुए सुप्रीम कोर्ट के सेक्युलर फैसले को पलटने के लिए मुस्लिम महिला (विवाह-विछेद अधिकार सुरक्षा) अधिनियम 1986 पारित किया। पूरे देश में इसकी कड़ी प्रतिक्रिया हुई जिसमे मो॰ आरिफ़ खान जैसे प्रगतिशील विचारधारा के मुस्लिम मंत्री ने विरोधस्वरूप केंद्रीय मत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। इतना ही नहीं 1989 में रामजन्म भूमि का ताला खुलवाते हुए वहीं से लोकसभा चुनाव का प्रचार अभियान शुरू किया और रामराज्य लाने की बात कही। चूँकि ऐसा कांग्रेस की सरकार के प्रधानमंत्री ने कहा इसलिए यह सेक्युलर था। वर्तमान प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह द्वारा “देश के प्राकृतिक संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है” बताया जाना, सेना सहित अन्य केंद्रीय सेवाओं में मुसलमानो की संख्या की गणना, उनकी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का विशेष अध्ययन करवाना, देश में मुस्लिम बाहुल्य जनपदों का चिन्हिकरण कर विशेष आर्थिक पैकेज देना, मुसलमानो के लिए पंद्रह-सूत्रीय कार्यक्रम लागू करना आदि के कुछ ऐसे कदम हैं जो यह बताते हैं कि कांग्रेसनीत सरकार किस हद तक मुस्लिम तुष्टीकरण करने को तैयार रहती है। अभी हाल में सम्पन्न उ॰ प्र॰ विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने से ठीक 24 घंटे पहले केंद्रीय सेवाओं के ओ॰बी॰सी॰ कोटे में अल्पसंख्यकों के लिए सरकार ने 4.5 प्रतिशत अलग से आरक्षण की घोषणा केवल मुस्लिम वोटबैंक को ध्यान में रख कर किया। इतना ही नहीं उनके एक मंत्री ने प्रचार अभियान के दौरान इसे 9 प्रतिशत तक बढ़ाने का वादा किया। कांग्रेस के एक बड़बोले महासचिव ने बटला हाउस इनकाउंटर को फर्जी बताकर न्यायिक जांच की मांग जबकि उन्हीं की सरकार ने स्व॰ श्री मोहन चन्द शर्मा, पुलिस इंस्पेक्टर को मरणोंपरांत वीरता पुरस्कार अशोक चक्र से सम्मानित किया। उन्हीं के विदेश मंत्री के अनुसार श्रीमती सोनिया गांधी इस घटना से इतनी व्यथित हुईं कि उनकी आँखों से आँसू छलक पड़े लेकिन अन्य उग्रवादी घटनाओं में मारे गए दूसरे वर्ग के लोगों के लिए कभी रोई हों ऐसा कभी नहीं सुना गया, वाह रे भारतीय सेक्युलरिज़्म। मुस्लिम वोटबैंक के कारण ही सरकार पाकिस्तान के सामने बार-बार घुटने टेकती है। वोटबैंक ही है जिसके कारण अफजल गुरु को आजतक फांसी नहीं दी जा सकी। क्या यही सच्ची धर्मनिरपेक्षता है या विशुद्ध मुस्लिम तुष्टीकरण।
अन्य दल भी हमेशा अपने को सेक्युलर जमात में सबसे आगे खड़े रखने का प्रयास करते हैं ताकि अल्पसंख्यकों विशेष तौर पर मुसलमानों की नजरे-इनायत उन पर बनी रहे और वे सत्ता का सुख भोगते रहें। भाजपा के भी दो वरिष्ठ नेताओं ने जिन्ना कि तारीफ कर देश के मुसलमानो का आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास किया लेकिन पार्टी के ऊपर स्थापना दिवस से ही सांप्रदायिकता का चस्पा लगे होने के कारण कोई लाभ नहीं मिला।
हम थोड़ा पीछे जाकर इतिहास में झाँकें तो पता चलता है कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने “खिलाफत आंदोलन” जो की पूर्णतः पैन-इस्लामिक था और जिसका भारत से सही अर्थ में कोई लेना-देना नहीं था, का संचालन किया गया जिसने देश में मुस्लिम कट्टरवाद को बढ़ावा दिया। इस आंदोलन का परिणाम यह हुआ कि “आल इंडिया खिलाफत कमेटी” का कांग्रेस से जल्दी ही मोह भंग हो गया और मुस्लिम लीग अस्तित्व में आई जो कि मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में धर्म के आधार पर देश के बँटवारे का कारण बनी।
यहाँ मैं एक संस्मरण का उल्लेख करते हुए बताना चाहूँगा कि कांग्रेस की केंद्रीय सरकार ने दो दशक पूर्व अकबर बादशाह की जयंती की 450वीं वर्षगांठ के अवसर पर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया गया था। आगरा के लाल किले में भी साल भर तक “लाइट एण्ड साउंड” कार्यक्रम चला। इसके ठीक दो वर्ष पूर्व महाराणा प्रताप की जयंती की भी 450वीं वर्षगांठ थी लेकिन सरकार को याद नहीं आया। जब सरकार पर महायोद्धा महाराणा प्रताप की जयंती पर भी इसी तरह के कार्यक्रमों का दबाव बनने लगा तो तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री श्री अर्जुन सिंह ने इसे सांप्रदायिक विचार करार दिया। इससे प्रतीत होता है सरकार की दृष्टि में भारमल ने अकबर से अपनी बेटी जोधाबाई की शादी जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर से कर पंथनिरपेक्षता की मिसाल कायम की और महारणा प्रताप ने अकबर से आखिरी सांस तक युद्ध लड़कर सांप्रदायिक कृत्य किया। आज की वोटबैंक की राजनीति ऐसी स्थिति में पहुँच चुकी है की तथाकथित पंथनिरपेक्ष पार्टियां राजा मानसिंह एवं जयचंद को सेक्युलर और महारणा प्रताप एवं पृथ्वीराज चौहान जैसे योद्धाओं जिन्होने मुस्लिम आक्रांताओं के विरूद्ध अंतिम दम तक लड़ा को सांप्रदायिक मानने में जरा सी भी नहीं हिचकतीं। इसका स्पष्ट उदाहरण श्री अर्जुन सिंह द्वारा प्राथमिक कक्षाओं की पुस्तकों से महान कवि श्याम नारायण पाण्डेय की हल्दीघाटी नामक कविता को निकलवाना है, और इससे बड़ी पंथनिरपेक्षता हो ही क्या सकती है।
आज देश में राजनीतिक दल दो भागों, पंथनिरपेक्ष एवं सांप्रदायिक में बाते हुए हैं। इन दलों को पता हैं की सत्ता में रहना तो हर तरह के हथकंडों को अपनाना होगा। इनके लिए अल्पसंख्यक वर्ग, विशेष रूप से मुसलमान सत्ता की कुर्सी तक पहुचने का एक अत्यंत उपयोगी साधन है। सभी तथाकथित पंथनिरपेक्ष दल इस समुदाय को अपनी ओर करने में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं। ताजा उदाहरण मुख्यमंत्री अखिलेश यादव एवं सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव द्वारा मौलाना अहमद बुखारी, मौलाना काल्वे सादिक़ एवं कैबिनेट मंत्री आजम ख़ान की नाराजगी को दूर कर पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव-2014 हेतु आशीर्वाद के रूप में मुस्लिम वोट प्राप्त करना प्रथम लक्ष्य बन गया है जबकि राज्य में अपहरण, हत्या, लूटपाट एवं बलात्कार अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहा है। ऐसा हो भी क्यों नहीं क्योंकि मुसलमान भाजपा एवं शिवसेना के विरूद्ध एकमुश्त वोट करते हैं जिसे अधिकतर पार्टियों ने सांप्रदायिक घोषित कर रखा है। ये सारे दल मुसलमानो को केवल और केवल वोटबैंक मानते हैं और इससे अधिक कुछ नहीं। अगर सही मायने में देखा जाये तो मुसलमानो के प्रगति के मार्ग मे यही तथाकथित पंथनिरपेक्ष दल सबसे बड़े अवरोधक हैं।
अंत में, यह सभी जानते हैं की देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ और जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान चुना वे वहाँ चले गए लेकिन जो रह गए वे शुरुआती दिनों देश की मुख्य धारा में जुडने के लिए तत्पर थे। इसी संदर्भ में डॉ॰ परिपूर्णनन्द वर्मा ने अस्सी के दशक में “दैनिक अमर उजाला” में प्रकाशित अपने एक स्तम्भ में लिखा था कि ‘देश के स्वतंत्र होने के पश्चात जो मुसलमान यहाँ रह गए थे वे सहमे हुए थे और काफी समय तक सिर उठाकर चलने में भी झिझकते थे क्योंकि देश का बटवारा धर्म के आधार पर जो हुआ था। वे मुख्य धारा में आत्मसात होना चाहते थे लेकिन हमारे नेताओं ने उनका भयादोहन जारी रखते हुए उन्हे एहसास कराते रहे की आप अल्पसंख्यक है और आप के वोट की बहुत अहमियत है और हम आप के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं’। वास्तविकता यह है इतने वर्षों बाद भी उनकी दशा में कोई सुधार नहीं हुआ क्योकि तथाकथित सेक्युलर पार्टियों के लिए वे केवल वोटबैंक हैं। अतएव देश के सामने सेक्युलर बनने कि स्पर्धा में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण कि जो बयार चल रही है कहीं वह समाज को छिन्न-भिन्न न कर दे। अब आप ही तय करें आखिर सांप्रदायिक कौन……

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